सम्यक्त्वादि भावोने पूर्वे कदी भाव्या नथी. पूर्वे नहि भावेली एवी अपूर्व भावनाने–रत्नत्रय
भावनाने आ भावी रह्या छो. हे नाथ! आप वीतरागी मुनिदशा अंगीकार करीने आत्माना
अतीन्द्रिय आनंदमां झुलतां झुलतां शीघ्र केवळज्ञान पामो अने आपना दिव्यध्वनि वडे
भव्यजीवोने माटे मोक्षमार्गना द्वार खुल्लां करो...”
नमस्कार करीने भगवान स्वयं दीक्षित थाय छे. लालबागना विशाळ वनमां भगवाननो
दीक्षा–प्रसंग अत्यंत शोभतो हतो. दीक्षा प्रसंगे भगवानना केशलोचननी विधि पू. गुरुदेवना
सुहस्ते थई हती. बहु ज भक्ति अने वैराग्यभावनापूर्वक पू. गुरुदेवे प्रभुजीनो केशलोच कर्यो
हतो. त्यारबाद भगवान निर्विकल्प ध्यानमां लीन थया ने सातमुं गुणस्थान तथा
मनःपर्ययज्ञान थयुं. त्यारबाद भगवान तो वनविहार करी गया. दीक्षावनमां पू. गुरुदेवे
अद्भुत वैराग्य–प्रवचन द्वारा भगवाननी दीक्षानुं स्वरूप बताव्युं हतुं तथा ते धन्य अवसरनी
भावना भावी हती. ए प्रवचन बाद वनमां ज अजमेरनी संगीत मंडळीए मुनिराजनी भक्ति
करी हती. तेमां ‘ऐसे मुनिवर देखे वन में ...जाको राग द्वेष नहि मन में’ ईत्यादि भजनो वडे
भावभरी भक्ति थई हती; पछी भगवानना केशनुं समुद्रमां क्षेपण करवामां आव्युं हतुं. बपोरे
मुनिराज श्री महावीरप्रभुनी भक्ति थई हती.
करे छे, जलवर्षा करे छे, भयंकर अग्निवर्षा करे छे, पण प्रभुजी तो निःशंकपणे ध्यानमां अडग
ऊभा छे, तेथी विशेष क्रोधित थईने बाणनो वरसाद वरसावे छे परंतु तेना बाणो थंभी जाय
छे. छेवटे भयंकर सर्पोनुं रूप धारण करीने उपसर्ग करे छे, पण ए वीतरागी मुनिराज जरापण
चलित थता नथी.... छेवटे रुद्र ते भगवानना चरणे नमी जाय छे ने गदगद भावे क्षमा मागे
छे. देवो आवीने भगवाननी भक्ति करे छे–ईत्यादि भावो बताववामां आव्या हता. घोर
उपसर्ग–प्रसंगो वखतनी भगवाननी परम धैर्यता अने गंभीरता जोईने भक्तोनुं हृदय तेमना
चरणोमां नमी जतुं हतुं. आठ–दस हजार माणसोनो समूह एकीटशे स्तब्ध थईने आ द्रश्य
नीरखतो हतो. उपसर्ग दूर थतां चारे बाजु आनंदनुं वातावरण छवाई गयुं हतुं.
आहारदान देता हता ते द्रश्य दर्शनीय हतुं. आहारदान प्रसंग श्री. मंजुलाबेन मयाशंकर
देसाईने त्यां थयो हतो. आ प्रसंग घणो उल्लासमय हतो.
जोईने भक्तो घणा आनंदथी भक्ति अने जयनाद करता हता. श्री जिनेन्द्रदेव अने जिनेश्वरना
लघुनंदननुं आवुं भक्तिभर्युं सुमिलन जोईने मुमुक्षुओना हृदयमां भक्ति उल्लसती हती.