सन्मुख थईने तेनुं ज्ञान करवुं ते ज उपाय छे. जेम काचली ने छोतां ते सफेद टोपरा साथे एकमेक थई गया
नथी पण जुदा छे, तेम शरीररूपी छोतां ने कर्मरूपी काचला ते चैतन्यगोळा साथे एकमेक थई गयेला नथी पण
जुदा छे. तेमज टोपरामां उपरनी राती छाल छे ते पण सफेद टोपरानुं वास्तविक स्वरूप नथी पण जुदुं छे एटले
खमणीथी छोलीने तेने जुदुं पाडी शकाय छे. तेम चैतन्यमूर्ति आत्मामां क्षणिक पुण्यपापनी विकारी लागणी थाय
छे ते उपरनी छाल जेवो उपाधिभाव छे, वास्तविक स्वरूप नथी, शुद्धनयथी जोतां ते विकारथी जुदुं शुद्ध
चैतन्यस्वरूप जणाय छे. आवा ज्ञानानंद स्वरूप आत्माने जाणवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. हे शिष्य! तारे
आत्मानो आनंद जोईतो होय, धर्म जोईतो होय, तो आवा ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने शुद्धनयथी द्रष्टिमां ले.
स्वरूप नथी, ते जुदा जुदा आकारोथी लक्षमां लेतां आत्मानुं वास्तविक स्वरूप लक्षमां आवतुं नथी. आत्मा
त्रिकाळ एकरूप असंख्यप्रदेशी छे. असंख्यप्रदेशी चैतन्यमूर्ति आत्मा त्रिकाळ एवो ने एवो छे, शरीरना
संयोगथी ते जुदो छे. आवा ज्ञानानंद स्वरूप आत्मामां ज सुख छे, ए वात अज्ञानीने बेसती नथी ने बहारना
साधनथी सुख माने छे. प्रभो! बहारनां जुदा जुदा साधनमां तुं आनंद माने ते भ्रम छे, तारा आनंदनुं स्थान
बहारमां नथी, पण तारा असंख्य प्रदेशमां ज तारो अखंड आनंद भर्यो छे. तेने प्रतीतमां लईने अंतर्मुख द्रष्टि
कर तो तने तारा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद अनुभवमां आवे. भाई! तारुं चैतन्यक्षेत्र तो आनंदना पाक पाके
तेवुं छे; आवा आत्मानी द्रष्टि कर तो आत्मज्ञान थाय, ने भवनो अंत आवे. आत्माना स्वभावनी आवी द्रष्टि
थया पछी धर्मीने शुभराग पण थाय, तेमज आवी द्रष्टि थया पहेलांं पण देव–गुरुना बहुमान भक्ति वगेरेनो
शुभराग थाय, अने ते रागना निमित्त तरीके जिनमंदिर, वीतरागी प्रतिमा, पंचकल्याणक महोत्सव वगेरे होय
छे. आत्माना आनंदमां झूलता वीतरागी संत गुरुओ प्रत्येनो भक्तिभाव तेमज सर्वज्ञ वीतराग परमात्मानी
स्थापना पूजा वगेरेनो भक्तिभाव धर्मीने आव्या विना रहे नहि. एकला शुभरागमां धर्म मानीने रोकाई जाय
तो ते अज्ञानी छे. धर्म तो जुदी चीज छे, धर्म करनारनी द्रष्टि राग उपर न होय, धर्म तो ज्ञानानंद स्वरूपना
अवलंबने ज थाय छे. छतां धर्मनी भूमिकामां तेवो राग आव्या विना रहेतो नथी. संसारना प्रसंगनो राग तो
सांजनी संध्या जेवो छे, तेनी पाछळ अंधारुं छे, ने धर्मना निमित्त तरीके वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये
भक्तिभाव आवे ते सवारनी संध्या जेवो छे, ते रागनो आदर छोडीने चैतन्यनी द्रष्टि करतां सम्यग्ज्ञानरूपी
प्रभात खीली जशे. रागनो आदर करीने धर्म मनावे तो ते अज्ञानी छे, अने वीतरागी देव–गुरु–धर्म प्रत्येनो
शुभराग सर्वथा आवे ज नहि एम माने तो ते पण शुष्क अज्ञानी छे. जेने धर्मनी जिज्ञासा छे, तेने धर्म पाम्या
पहेलांं तेमज धर्म पाम्या पछी पण धर्मात्माओ प्रत्ये बहुमान अने आदरनो भाव आव्या विना रहेतो नथी.
पण अंदरमां रागरहित ज्ञानानंद स्वरूप उपरनी द्रष्टिथी ज धर्म थाय छे. तीर्थंकर भगवाननो जन्म थाय त्यारे
ईन्द्रो आवीने मोटो महोत्सव करे अने पगे घूघरा बांधीने भक्तिथी नाची ऊठे. ईन्द्र–ईन्द्राणी पोते पण
एकावतारी छे, आत्माना भानवाळा छे, तेमने पण तीर्थंकर भगवानने जोतां एवो भक्तिभाव ऊछळी जाय
छे. अहो, नाथ! आ तारो छेल्लो अवतार छे, आ ज भवमां आत्माना परिपूर्ण स्वरूपने साधीने आप
केवळज्ञान अने मुक्ति पामशो. धर्मनी जिज्ञासावाळा जीवने साचां देव–गुरु–धर्म प्रत्ये भक्तिनो आवो भाव
आव्या विना रहेतो नथी. सर्वज्ञ भगवान, वीतरागी संत अने धर्मात्मा प्रत्ये आदरभाव जेने नथी आवतो
तेने धर्मनी प्रीति ज नथी. छतां जे राग आवे छे ते रागना अवलंबनथी धर्म थई जाय छे एम पण नथी. शुद्ध
ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा ते रागथी पण पार छे, एवा आत्मानी अंतर्मुख द्रष्टि करवी ते ज धर्म छे. आवा
आत्मानी द्रष्टि करे तो ज सम्यग्दर्शन अने धर्म थाय छे; आ सिवाय बीजुं कोई साधन नथी.