चैतन्यप्रदेशमां ज तारो अखंड आनंद भर्यो छे; तेने प्रतीतमां
लईने अंतर्मुख द्रष्टि कर तो तने तारा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद
अनुभवमां आवे, अने भवभ्रमणना दुःखनो अंत आवे.
सम्यग्ज्ञान थाय; सर्वज्ञ थवानी ताकात आत्मामां पडी छे तेमांथी ज सर्वज्ञता व्यक्त थाय छे. जो वस्तुमां
पोतामां ताकात न होय तो ते क्यांयथी आवे नहि अने अंतरशक्तिमां ज जे ताकात भरी छे ते कोई बहारना
कारणथी प्रगटती नथी. जेम लींडीपीपरना एकेक दाणामां चोसठपोरी तीखाश थवानी ताकात छे. तेम एकेक
आत्मामां परिपूर्ण सर्वज्ञता थवानी ताकात छे, आत्मामां ज सर्वज्ञ थवानी ताकात छे ए वात जीवे कदी
यथार्थपणे सांभळी नथी. खरेखर सांभळी क्यारे कहेवाय? के सर्वज्ञभगवाने अने संतोए जे कह्युं तेनो आशय
पोते समजे तो सांभळ्युं कहेवाय.
थयो छे एवा गुरु पासे जईने शिष्य प्रश्न पूछे छे : प्रभो! शुद्धआत्मानुं स्वरूप शुं छे के जेने जाणवाथी
आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद अनुभवमां आवे, अने भवभ्रमणना दुःखथी छूटकारो थाय?
अंर्तद्रष्टिथी शुद्धनय वडे आत्मस्वभावने जोतां विकाररहित शुद्धआत्मानो अनुभव थाय छे. विकार अने
बंधन वगरनो आत्मस्वभाव त्रिकाळ छे तेनी सन्मुख द्रष्टिथी सम्यग्दर्शन थाय छे.
अविशेष अणसंयुक्त तेने शुद्धनय तुं जाणजे. १४.
तेना उत्तरमां आचार्यभगवान समजावे छे के हे भाई! विकारी भावो अभूतार्थ छे ते आत्मानो मूळभूत
स्वभाव नथी, तेथी आत्माना भूतार्थ स्वभावनी सन्मुख थईने अनुभव करतां ते विकाररहित शुद्धपणे आत्मा
अनुभवाय छे.