Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 8 of 21

background image
: जेठ : २०१० : आत्मधर्म–१२८ : १५१ :
भाई! तें बहु सारो प्रश्न पूछयो. भाई, तळावमां पण आरो होय छे तेम आ भवभ्रमणनो पण आरो छे; पण
अंतरमां देहथी भिन्न आत्मानुं चिदानंद स्वरूप शुं छे तेनी ओळखाण करे तो भवना अंतनो पोताने भणकार
आवी जाय!
एकवार १६–१७ वर्षनी उंमरे कविता बनावी तेमां एवो भणकार आव्यो के–
“शिवरमणी रमनार तुं...तूं ही देवनो देव....”
अंदरथी एवी स्फुरणा आवी के : अरे आत्मा! तुं कोण छे? “शिवरमणी रमनार तुं” एटले पुण्य–
पापना विकाररहित जे निर्मळपरिणति रूपी शिवरमणी, तेनी साथे तुं रमनार छो; अंतरना निर्विकारी
आनंदनो भोगवटो करवानो तारो स्वभाव छे. अने ‘तूं ही देवनो देव’ हे आत्मा! सर्वज्ञ थया ते क्यांथी
थया? आत्माना स्वभावमांथी ज थया छे; तारा आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ताकात भरी छे, एटले ‘तूं ही देवनो
देव.’ आत्मामां पूर्ण सर्वज्ञ थवानो स्वभाव भर्यो छे. जुओ, आ आत्माना भणकार! अंदर एकवार तो
विचार तो करो के अंदर हुं कोण छुं? अत्यारे महाविदेहमां सर्वज्ञ परमात्मा सीमंधर भगवान बिराजे छे,
तेमना उपदेशमां आत्मानुं स्वरूप सांभळीने नाना–नाना आठ वर्षना राजकुमारो पण अंतरमां तेनो विचार
करीने अपूर्व आत्मज्ञान पामी जाय छे. अंतरना शुद्ध चिदानंद तत्त्वनो विचार करीने तेनो अनुभव करवो ते
आ जन्म–मरणना फेराथी छूटवानो उपाय छे.
धर्मात्माओने जन्म–मरणमां रखडी रहेला प्राणीओ उपर दया आवे छे. स्वर्गना देवने पुण्यनो ठाठ
होय, तेने जोईने पण ज्ञानीने तो तेनी दया आवे छे के अरेरे! आ प्राणी आत्माना भान वगर जीवन
पूरुं करीने चोराशीना अवतारमां नरकनी गोदमां रखडशे. लोको कहे छे के दया पाळो! पण भाई रे!
आत्माना भान वगर तारो आत्मा आ भवभ्रमणमां भावमरणे मरी रह्यो छे ने अनंतुं दुःख भोगवी
रह्यो छे तेनी तो दया पाळ! अरेरे! हवे मारो आत्मा आ अवतारथी केम छूटे? आ भयंकर भावमरणना
त्रासथी मारो आत्मा केम छूटे? एनो अंतरमां विचार तो कर! पापना फळमां दुःखी थई रहेला ढोर
वगेरेने देखीने तो जगतना घणा जीवोने दया आवे छे. परंतु ज्ञानीने तो, पुण्यना फळ भोगवी रहेला
देवो उपर पण दया आवे छे; केमके आत्माना भान वगर पुण्यना फळमां लीन थई गया छे तेथी पाप
बांधीने ढोरमां रखडशे. आत्माना भान वगर देवो पण दुःखी छे. माटे हे भाई! आ भवभ्रमणथी तने
थाक लाग्यो होय तो हवे अंतरमां विचार कर के मारुं स्वरूप शुं छे? आ देहथी भिन्न मारो आत्मा शुं
चीज छे? आवो विचार करीने सत्समागमे तेनी ओळखाण करवी ते भवभ्रमणथी छूटवानो उपाय छे.
संयोगो हुं नहि ने पुण्य–पाप पण हुं नहि, हुं तो चिदानंदस्वरूप आत्मा छुं; शुद्धचिद्रूप सिवाय बीजुं कांई
मारुं नथी; शरीर मारुं नथी, वाणी मारी नथी, ने अंदर पुण्य–पापनी लागणी ऊठे ते पण मारुं तत्त्व
नथी, मारुं तत्त्व तो अंदरमां कायमी चिदानंद स्वरूप छे. आवो विचार पण जीवे कदी कर्यो नथी.
आचार्यदेव कहे छे के अरे! आवो मनुष्य–अवतार पामीने जेओ आत्मानुं भान करता नथी, सत्समागमे
तेनो विचार पण करता नथी ते तो
‘मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति’ भले बहारनी गमे तेटली केळवणी भण्यो
पण अंदरमां हुं आत्मा कोण छुं, तेनुं भणतर न भण्यो तो तेनुं बधुं भणतर थोथेथोथां छे, तेमां क्यांय
आत्मानुं हित नथी. माटे हे भाई! आ मनुष्य अवतार पामीने आत्माना स्वरूपनो विचार कर. तारो
आत्मा आनंदकंद छे तेना लक्ष वगर कुसंगमां अनंतकाळ गाळ्‌यो, पण हवे सत्समागमे आत्मानो विचार
तो कर. आ शरीर तो चाल्युं जशे. बाळक–युवान के वृद्ध ते तो देहनी दशा छे, ते तारुं स्वरूप नथी, तुं तो
देहथी भिन्न ज्ञान–आनंदस्वरूप छो. जेम चणाना एकेक दाणामां मीठाशनी ताकात पडी छे तेमांथी ज ते
मीठाश प्रगटे छे, तेम तारा आत्मामां आनंदनी ताकात पडी छे, अंतर्मुख अवलोकन करतां तेमांथी ज
आनंद व्यक्त थाय छे; अनादिथी आवा स्वरूपनी एक क्षण पण ओळखाण करी नथी. सत्समागमे
आत्माना स्वरूपनुं श्रवण करीने तेनो विचार अने निर्णय करवो ते आ भवभ्रमणथी छूटवानो उपाय छे.
– केराळा गाममां परमपूज्य गुरुदेवनुं सुंदर प्रेरक प्रवचन :
वीर सं. २४८०, वैशाख सुद पांचम.