Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १५० : आत्मधर्म–१२८ : जेठ : २०१० :
हे जीव!
एक क्षण पण तारा स्वरूपनो विचार कर!
नाहं किंचिन्न मे किंचिद् शुद्धचिद्रूपकं विना।
तस्मादन्यत्र मे चिंता वृथा तत्र लयं यजे।।
तत्त्वज्ञानतरंगिणीनो दसमो श्लोक छे, तेमां कहे छे के–आत्मा शुद्धचिद्रूप छे, ते सिवाय बीजुं कांई
आत्मा नथी, अने देहादिक कोई पदार्थो आत्माना नथी; तेथी शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माना चिंतवन सिवाय
बीजा पदार्थोनी चिंता व्यर्थ छे. देहथी भिन्न मारुं चिदानंद–स्वरूप शुं छे तेनो हे जीव! तुं विचार कर.
भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति तत्त्व छे, ते आ देहथी भिन्न छे. सर्वज्ञ भगवाने कहेला आत्मानुं स्वरूप
जीवोए कदी एक सेकंड पण जाण्युं नथी. आत्माने ओळख्या विना पूर्वे पुण्य तेमज पापना भावो करीने चारे गतिना
अवतारमां अनंतवार रखडी चूक्यो छे. आत्मा नवो नथी पण अनादिनो छे, छे ने छे. तेने कोईए बताव्यो नथी ने
तेनो कदी नाश थतो नथी. तो अत्यार सुधी आत्मा क्यां रह्यो? के स्वर्ग–नरकना तेमज ढोर अने मनुष्यना
अवतारमां अत्यार सुधी जीव रखडयो छे. तीव्र दंभ–कुटिलता अने वक्रता करे ते तिर्यंच थाय छे, तेनुं शरीर आडुं
होय छे. महा तीव्र पापो करे ते मरीने नरकमां जाय छे. कांईक सरलता वगेरे पुण्य परिणामथी मनुष्य थाय छे, ने
दयादिना विशेष शुभ परिणामथी देवलोकमां जाय छे. पण मारुं ज्ञानस्वरूप शुं छे, देहथी भिन्न चैतन्यतत्त्वनुं स्वरूप
शुं छे तेना भान वगर भवभ्रमण मटतुं नथी. तेथी अहीं आत्मानुं वास्तविक स्वरूप शुं छे ते समजावे छे.
श्रीमद् राजचंद्र नानी उंमरमां कहे छे के–
हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
जामनगरमां जामसाहेबे मांगणी करी त्यारे तेमना बंगले आ कडी तेमने संभळावी हती. श्रीमद्
राजचंद्रने सात वर्षनी नानी वयमां जातिस्मरण ज्ञान थयुं हतुं, आ भव पहेलांं हुं क्यां हतो तेनुं भान थयुं
हतुं. पछी सोळ वर्षनी उंमरे ‘मोक्षमाळा’ बनावी, तेमां १०८ पाठ छे; तेमां ‘अमूल्य तत्त्वविचार’ना पाठमां
पांच कडी छे. तेनी आ एक कडी छे; तेमां कहे छे के–
‘हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो र्क्यां,
तो सर्व आत्मिकज्ञानना सिद्धांततत्त्वो अनुभव्यां.’
अरे जीवो! अंतरमां एक क्षण विचार तो करो के आ देहमां रहेलो आत्मा शुं चीज छे? बहारनी लक्ष्मी
ने बहारनुं राज्य ते तो पूर्वना पुण्यथी मळे छे, तेमां कांई आत्मानुं हित नथी; पण अंतरमां चैतन्य लक्ष्मीनुं
भान करीने आत्माना साम्राज्यनी प्राप्ति करवी ते ज साचुं राज्य छे, तेमां ज आत्मानी शोभा अने हित छे.
अंतरमां विचार करे तो पूर्वभवनुं पण ज्ञान थई शके छे. आ देहनो संयोग तो हमणां थयो, त्यार पहेलांं पण
आत्मा क्यांक बीजे हतो. देह तो नवा नवा बदले छे ने आत्मा अनादिनो एनो ए ज छे, तो तेनुं वास्तविक
स्वरूप शुं छे? आवो स्वरूपनो विचार अने निर्णय कदी एक सेकंड पण कर्यो नथी.
ज्ञानी कहे छे के अहो! हुं तो शुद्धचिद्रूप छुं; शुद्धचिद्रूप–आनंदस्वरूप सिवाय आ जगतमां बीजुं कांई
मारुं नथी, अने हुं कोईनो नथी. शरीर ते मारी चीज नथी, ने अंदर रागादिकनी वृत्तिओ थाय छे ते क्षणिक छे,
ते पण मारुं वास्तविक स्वरूप नथी. शुद्धचिद्रूप ज हुं छुं, ए सिवाय बीजुं कांई हुं नथी. अरे भगवान!! तारा
आवा स्वरूपनो विचार तो कर. भाई, बीजी लौकिक केळवणी भण्यो तेमां कांई तारुं हित नथी; पण आत्मानुं
स्वरूप शुं छे तेनो अंर्तविचार करीने तेनी केळवणी ले, तेनी ओळखाण कर, तो आत्मानुं हित थाय ने भव–
भ्रमणथी छूटकारो थाय. एक नाना गामडामां पटेल पूछता हता के ‘महाराज! आ भवना अवतारनो क्यांय
अंत खरो? आ दुःखनो क्यांय आरो खरो?’ त्यारे थयुं के :