छे, अने पुण्य–पापथी धर्म थाय एवी ऊंधी रुचि छूटी जाय छे ते वैराग्य छे. आ प्रकारे नवतत्त्वोनुं ज्ञान थाय
तेनुं नाम चित्तशुद्धि छे; अने ते सम्यग्दर्शननी प्रथम भूमिका छे.
मोक्षदशा प्रगटवानुं सामर्थ्य छे; तेमांथी ज मोक्षदशा प्रगटशे. मारी मोक्षदशा शरीरादि अजीवनी क्रियामांथी नहि
आवे, पुण्य–पाप के आस्रव–बंधना विकारी भावोमांथी पण मारी मोक्षदशा नहि आवे; अने स्वभावना
अवलंबने संवर–निर्जरा रूप जे अधूरी निर्मळ दशा प्रगटी ते अधूरी दशाना अवलंबने पण पूर्ण मोक्षदशा नहि
आवे. मोक्षदशानुं सामर्थ्य मारा आत्मस्वभावमां ज छे, ते स्वभावना अवलंबने ज मारी मोक्षदशा प्रगटी
जशे. आ रीते स्वसन्मुख थईने आत्मानी प्रतीति करवी–निर्विकल्प अनुभव करवो ते प्रथम अपूर्व धर्म छे.
समाई गया. तथा समजवानुं कह्युं –तो समजे एवी ताकात जीवमां छे, एटले के जीव ज्ञानस्वभावी छे ए वात
आवी गई. जीवने समजवानुं कह्युं, एटले समजशक्ति वगरना बीजा अजीव तत्त्वो पण जगतमां छे–ए वात
तेमां आवी जाय छे. वळी अत्यार सुधी नहोतो समज्यो ने हवे नवी अपूर्व समजण करवानुं कह्युं तेमां संवर–
निर्जरा तत्त्व आवी जाय छे. समजीने स्वभावमां ठरतां मोक्षदशा थई जाय छे. आवुं समजीने स्वरूपमां ठरनारा
साचा देव–गुरु छे, आथी विपरीत मनावनारा ते कुदेव कुगुरु छे.
वैभव होय, हजारो राणीओ होय छतां अंतरमां चिदानंद स्वरूप आत्मानुं सम्यग्ज्ञान होय छे. माटे ते बहारनो
त्याग होय तो ज सम्यग्ज्ञान थाय एवो एनो अर्थ नथी. बहारमां संयोगो वर्तता होवा छतां ‘हुं ज्ञानानंद
स्वरूप आत्मा पुण्य–पापथी पार छुं’ एवी अंर्तद्रष्टिनुं परिणमन समकितीने थई गयुं छे. अहीं तो कहेवुं छे के
नवतत्त्वोने जाणतां कुतत्त्वोनी मान्यतानुं वलण छूटी जाय तेनुं नाम त्याग छे, ने एवा त्याग वगर सम्यग्ज्ञान
थाय नहि. सम्यग्ज्ञान थया पछी चैतन्यस्वरूपमां विशेष लीन थतां राग–द्वेष छूटी जाय, तेना प्रमाणमां
बहारनो त्याग सहज होय छे. पण परवस्तुने आत्मा ल्ये के छोडे एवो तेनो स्वभाव नथी. नवतत्त्व शुं छे ने
ते नवतत्त्वना विकल्पथी पार आत्मानो निर्विकल्प स्वभाव शुं छे? ते समज्या वगर गमे तेटला तप के त्याग
करे, पण तेमां किंचित् धर्म नथी; अभव्य जीवो पण एवा शुभभावरूप व्रत–तप करे छे, अने दरेक जीव
आत्माना भान वगर एवा शुभभावरूप व्रत–तप अनंतवार पूर्वे करी चूक्यो छे, ते धर्मनुं कारण नथी. आ
धर्मनी अपूर्व वात छे. अनादिनी पोतानी ऊंधी कल्पना छोडीने सत्समागमे सांभळीने नवतत्त्वनो निर्णय
करवो ते सम्यग्दर्शन माटेनुं आंगणुं छे. भाई! चैतन्यस्वभावनो अनुभव करवा जतां आवुं आंगणुं आवे छे,
छतां आंगणुं ते अनुभव नथी, अभेद स्वभावनुं अवलंबन लईने भगवान आत्मानो एकलानो अनुभव
करतां आंगणुं पण छूटी जाय छे ने निर्विकल्प सम्यग्दर्शन थाय छे. श्रेणीक राजाने व्रत–तप न हता छतां आवुं
सम्यग्दर्शन हतुं. सीताजीने पेटमां बे बाळको हता छतां ते वखते आवुं आत्मभान तेमने वर्ततुं हतुं. राग होय
छतां अंतरमां भान वर्ते छे के मारुं स्वरूप आ रागथी जुदु छे. हुं तो चिदानंदमूर्ति छुं एवी द्रष्टि धर्मीने वर्तती
होय छे. अहीं तो कहे छे के एकला नवतत्त्वना भेदना विचारमां ज रोकाय, ने अंतरना अभेद स्वभावनी
सन्मुख थईने तेनो निर्विकल्प अनुभव न करे त्यांसुधी सम्यग्दर्शन थाय नहि. नवतत्त्वने जेम छे तेम जाणीने
अंतरमां अभेद आत्मस्वभावनुं एकनुं ज अवलंबन लईने तेनो निर्विकल्प अनुभव करतां अपूर्व सम्यग्दर्शन
थाय छे, ते धर्मनी शरूआत छे.