Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १४८ : आत्मधर्म–१२८ : जेठ : २०१० :
प्रथम भूमिका
स्वसन्मुख थईने आत्मानी प्रतीति करवी–निर्विकल्प अनुभव करवो ते
प्रथम अपूर्व धर्म छे........बहारमां संयोगी वर्तता होवा छतां, ‘हुं ज्ञानानंद स्वरूप
आत्मा पुण्य–पापथी पार छुं, संयोगो माराथी भिन्न छे’ एवी अंर्तद्रष्टिनुं
परिणमन समकितीने थई गयुं छे. सम्यग्दर्शननी भूमिकामां नवतत्त्वोनुं ज्ञान केवुं
होय अने त्याग–वैराग्य केवा प्रकारनो होय ते समजवुं जोईए.
[वैशाख सुद १ ना रोज सुरेन्द्रनगरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन]
सम्यग्दर्शन एटले आत्मानी प्रथम धर्मदशा क्यांथी शरू थाय छे तेनी आ वात छे. आत्मा एक स्वतंत्र
तत्त्व छे. जगतमां अनंता जीवो छे, ते दरेक जीवद्रव्य अनंत गुणनो पिंड छे मारो आत्मा अनंतगुणनो
चैतन्यपिंड छे, एटले के हुं जीव द्रव्य छुं; शरीरादिक अजीव छे ते हुं नथी, मारी अवस्थामां क्षणिक शुभ–अशुभ
भावो थाय छे ते पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध छे, ते मारुं वास्तविक स्वरूप नथी पण उपाधिभाव छे; अने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्दोष भाव प्रगटे ते संवर–निर्जरा ने मोक्ष तत्त्व छे. आ प्रमाणे नवतत्त्वोने
भेदथी जाणे ते पण हजी सम्यग्दर्शन नथी. पण आवा नवतत्त्वोने जेम छे तेम पहेलांं जाणवा जोईए. अने
आवा नवतत्त्वोने जाणतां पोताने अंतरमां विवेक थई जाय के पुण्य–पापने साधीने धर्म मनावनारा कुदेव–
कुगुरु केवा होय? ने संवर–निर्जरा–मोक्षरूप धर्मने साधनारा साचा देव–गुरु केवा होय? तथा तेमनी वाणी केवी
होय? आ रीते नवतत्त्वोना निर्णयमां देव–गुरु–शास्त्रनो निर्णय पण आवी जाय छे.
अहीं तो हजी आगळनी वात बताववी छे. नव–तत्त्वने जाणीने पण तेमांथी एक शुद्ध चिदानंद आत्माने
ज द्रष्टिमां लईने तेनी निर्विकल्प प्रतीति करवी ते अपूर्व सम्यग्दर्शन छे.
नव तत्त्वोने जेम छे तेम जाणतां कुदेव–कुगुरु–कुधर्मनी रुचि ने आदर छूटी जाय छे, तथा साचा देव–
गुरु–धर्म तरफ वलण थाय छे, तेमज पुण्य–पापथी धर्म थवानी मान्यता छूटी जाय छे –आ प्रकारनो त्याग
प्रथम भूमिकामां होय छे. ‘त्याग–विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान’ एम कह्युं छे तेमां आ आशय छे.
नवतत्त्वनुं ज्ञान करे तेमां कुदेव–कुगुरुनी मान्यतानो त्याग आवी जाय छे. आवो त्याग थया पछी पण पोते
ज्यां सुधी नवतत्त्वना विकल्पोमां अटके, ने अभेद आत्माने द्रष्टिमां न ल्ये त्यां सुधी सम्यग्दर्शन थाय नहि.
जेम कंदोईनी दुकाने मीठाई लेवा जाय त्यां तेनो भाव पूछे छे, तथा त्राजवा–तोलानुं माप नक्की करे छे, पछी
मीठाई खाती वखते तेनुं लक्ष होतुं नथी; तेम चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो अनुभव करनार जीव पहेलांं
नवतत्त्वोने जाणीने तेनो विचार करे छे. नय–प्रमाण–निक्षेपना प्रकारोथी नवतत्त्वोनो विचार करे छे, पण तेमां
हजी शुभराग छे; पछी आत्माना स्वभाव तरफ वळीने निर्विकल्प आनंदनो अनुभव करती वखते ते विकल्पो
होता नथी. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, ने त्यांथी धर्मनी शरूआत छे.
आत्मानो निर्णय करवा माटे नवे तत्त्वो जेम छे तेम जाणवा जोईए. हुं धर्म करवा मागुं छुं, तो धर्म ते
आत्मानो निर्विकारी अरूपी भाव छे. ते भाव कोईक वस्तुना आधारे होय. संवर–निर्जरानो भाव आत्मामां
प्रगट करीने मोक्षने साधनारा संतो ते गुरु छे. अने मोक्ष–तत्त्वनो निर्णय कर्यो तेमां, ते मोक्षभाव जेमने प्रगटी
गयो छे एवा अनंता जीवो आ जगतमां छे एनी पण प्रतीत आवी जाय. पूर्वना अनंतकाळमां मोक्षदशा
पामेला जीवो अनंता थई गया छे. तेमां पण अनंता जीवो देहरहितपणे सिद्धदशामां बिराजे छे; अने केटलाक
जीवो शरीर रहित एवी अरिहंत दशामां पण आ जगतमां क्यांक वर्ते छे. आ बधानो निर्णय नवतत्त्वना
निर्णयमां