आत्मा पुण्य–पापथी पार छुं, संयोगो माराथी भिन्न छे’ एवी अंर्तद्रष्टिनुं
परिणमन समकितीने थई गयुं छे. सम्यग्दर्शननी भूमिकामां नवतत्त्वोनुं ज्ञान केवुं
होय अने त्याग–वैराग्य केवा प्रकारनो होय ते समजवुं जोईए.
चैतन्यपिंड छे, एटले के हुं जीव द्रव्य छुं; शरीरादिक अजीव छे ते हुं नथी, मारी अवस्थामां क्षणिक शुभ–अशुभ
भावो थाय छे ते पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध छे, ते मारुं वास्तविक स्वरूप नथी पण उपाधिभाव छे; अने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्दोष भाव प्रगटे ते संवर–निर्जरा ने मोक्ष तत्त्व छे. आ प्रमाणे नवतत्त्वोने
भेदथी जाणे ते पण हजी सम्यग्दर्शन नथी. पण आवा नवतत्त्वोने जेम छे तेम पहेलांं जाणवा जोईए. अने
आवा नवतत्त्वोने जाणतां पोताने अंतरमां विवेक थई जाय के पुण्य–पापने साधीने धर्म मनावनारा कुदेव–
कुगुरु केवा होय? ने संवर–निर्जरा–मोक्षरूप धर्मने साधनारा साचा देव–गुरु केवा होय? तथा तेमनी वाणी केवी
होय? आ रीते नवतत्त्वोना निर्णयमां देव–गुरु–शास्त्रनो निर्णय पण आवी जाय छे.
प्रथम भूमिकामां होय छे. ‘त्याग–विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान’ एम कह्युं छे तेमां आ आशय छे.
नवतत्त्वनुं ज्ञान करे तेमां कुदेव–कुगुरुनी मान्यतानो त्याग आवी जाय छे. आवो त्याग थया पछी पण पोते
ज्यां सुधी नवतत्त्वना विकल्पोमां अटके, ने अभेद आत्माने द्रष्टिमां न ल्ये त्यां सुधी सम्यग्दर्शन थाय नहि.
जेम कंदोईनी दुकाने मीठाई लेवा जाय त्यां तेनो भाव पूछे छे, तथा त्राजवा–तोलानुं माप नक्की करे छे, पछी
मीठाई खाती वखते तेनुं लक्ष होतुं नथी; तेम चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो अनुभव करनार जीव पहेलांं
नवतत्त्वोने जाणीने तेनो विचार करे छे. नय–प्रमाण–निक्षेपना प्रकारोथी नवतत्त्वोनो विचार करे छे, पण तेमां
हजी शुभराग छे; पछी आत्माना स्वभाव तरफ वळीने निर्विकल्प आनंदनो अनुभव करती वखते ते विकल्पो
होता नथी. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, ने त्यांथी धर्मनी शरूआत छे.
प्रगट करीने मोक्षने साधनारा संतो ते गुरु छे. अने मोक्ष–तत्त्वनो निर्णय कर्यो तेमां, ते मोक्षभाव जेमने प्रगटी
गयो छे एवा अनंता जीवो आ जगतमां छे एनी पण प्रतीत आवी जाय. पूर्वना अनंतकाळमां मोक्षदशा
पामेला जीवो अनंता थई गया छे. तेमां पण अनंता जीवो देहरहितपणे सिद्धदशामां बिराजे छे; अने केटलाक
जीवो शरीर रहित एवी अरिहंत दशामां पण आ जगतमां क्यांक वर्ते छे. आ बधानो निर्णय नवतत्त्वना
निर्णयमां