जन्मनो महोत्सव ऊजवाय छे. भगवानने आत्मानुं ज्ञान तो पूर्वभवोमां ज हतुं, पछी आ भवमां पूर्ण
चारित्रदशा प्रगट करीने भगवाने केवळज्ञान प्रगट कर्युं. ते केवळज्ञान–कल्याणक आजे बपोरे ऊजवाशे.
केवळज्ञान थया पछी ईन्द्रोए समवसरणनी रचना करी, ने दिव्यध्वनिमां भगवाननो उपदेश नीकळ्यो; ते
उपदेशमां भगवाने शुं कह्युं? भगवाने कह्युं के हे आत्मा! तारे सुखी थवुं छे, तो ते सुख क्यां छे? बहारमां
क्यांय सुख नथी पण तारा अंर्तस्वभावमां ज सुख छे. अंतरना ज्ञानानंद स्वभावनी प्रतीत करीने तेमां
एकाग्रता वडे सुख प्रगटे छे. प्रभो! परमां तारुं सुख नथी, शरीरमां सुख नथी, लक्ष्मीमां सुख नथी, स्त्रीमां के
आबरूमां सुख नथी, संयोगमां तारुं सुख नथी तेम संयोगमां दुःख पण नथी. हवे ‘संयोगमां सुख छे’ एवी जे
कल्पना तें करी छे, ते कल्पनामां पण तारुं सुख नथी. भगवान! तारा सुखनुं अस्तित्व क्यां छे? सुखनी सत्ता
क्यां छे? ज्ञानानंद स्वभावना अस्तित्वमां ज तारुं सुख छे. तारा सुखनुं अस्तित्व ताराथी जुदुं न होय.
स्वभावमां ज सुख छे तेने बहारना साधननी जरूर नथी. जेम दरियाना पाणीमां मध्यबिंदु ऊछळीने भरती
आवे छे; बहारथी भरती आवती नथी. सेंकडो नदीना पाणी आवे के सेंकडो इंच वरसाद एक साथे पडे, पण
तेनाथी दरियामां भरती आवती नथी, पण अंदरना पाणीना दळना मध्य–बिंदुनी ताकातथी दरियामां भरती
आवे छे. भले गमे तेटली गरमी होय पण दरियाना मध्यबिंदुनी ताकात ऊछळीने जे भरती आवे ते रोकाय
नहि. तेम ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मामां ज्ञानानंदनी भरती केम आवे? धर्मना तरंग केम ऊछळे? बहारना
संयोगमांथी तो आत्मामां धर्मनी भरती न आवे. पांच ईन्द्रियो अने मनना अवलंबनथी पण आत्मामां
धर्मनी भरती न आवे. अने अंदर शुभ–अशुभ परिणाम थाय तेनाथी पण आत्मामां धर्मनी भरती न आवे.
पण अखंड चैतन्यदळ छे तेना अवलंबने ज्ञानानंदनी भरती आवे छे. बहारमां गमे तेवा प्रतिकूळ संयोगो
होय पण अंर्तद्रष्टिना अवलंबने आत्मानुं मध्यबिंदु ऊछळीने जे ज्ञानानंदना तरंग ऊछळे तेने ते कोई रोकी
शके नहि. अंर्तस्वभावना अवलंबन वगर बहारना कोई कारणथी आत्मामां ज्ञानानंदनी भरती आवे नहि.
लौकिक कळानुं जाणपणुं के शास्त्रनुं जाणपणुं तेमांथी पण आत्माना ज्ञानानंदनी भरती आवती नथी. अतीन्द्रिय
आनंद कहो के धर्म कहो, ते अंर्तस्वभावना अवलंबनथी ज प्रगटे छे. जीवो सुखने ईच्छे छे पण तेना कारणने
सेवता नथी. जीवो दुःखने ईच्छता नथी पण दुःखना कारणमां सततपणे वर्ते छे. अहीं भगवान कहे छे के हे
भाई! तारुं सुख तारा ज्ञानानंदस्वभावमां ज छे, ए सिवाय संयोगमां के संयोग तरफना भावमां तारुं सुख
नथी. आवुं लक्ष तो कर, अंतरमां सुख छे एवुं वलण तो कर, आत्मा पोतानी प्रभुतानी ताकातथी शोभे एवी
आ वात छे. आ ज साचुं स्वराज छे. आत्मा पोते पोताना चैतन्यनी प्रभुताथी शोभे एनुं नाम साचुं स्वराज
छे. आ सिवाय बहारमां संयोगना ढगला होय तेना वडे आत्मानी कांई शोभा नथी. सर्वज्ञभगवानना ज्ञानमां
त्रणकाळ त्रणलोक जणाय छे ने पूर्णानंदनो अनुभव छे.