Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २०१० : आत्मधर्म–१२८ : १५५ :
आवा अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंद भगवानने प्रगट्या ते क्यांथी प्रगट्या? अंदर आत्माना स्वभावमां
ताकात भरी छे तेमांथी ज ते व्यक्त थया छे. एकेक आत्मामां परिपूर्ण ज्ञानानंदनी ताकात भरी छे. दरेक आत्मा
स्वभाव–शक्तिए भगवान जेवो ज परिपूर्ण छे; अहो! आवा अतीन्द्रिय ज्ञानसामर्थ्यनी प्रतीत करो...तेनी
रुचि करो... तेनी ओळखाण करो. आवा आत्मस्वभावनी प्रतीत कर्या वगर चार गतिनुं परिभ्रमण मटे नहि.
कोई कहे के ‘नरकमां जवानी बंधी आपो.’ पण भाई! जेने स्वर्गना अवतारनी के पुण्यनी प्रीति छे तेने चारे
गतिना अवतारनो भाव ऊभो ज छे. आत्माना ज्ञानानंद स्वभावने ओळखीने तेने अग्रेसर कर, एटले के
संयोगनी के संयोग तरफना भावनी मुख्यता न कर, पण अंतरना स्वभावनी शक्तिए अग्र करीने तेनी
मुख्यता आप, तेनुं अवलंबन कर, तो तेना अवलंबने सम्यग्दर्शन वगेरे प्रगटे ने चारे गतिनुं परिभ्रमण टळे.
धर्म एटले अतीन्द्रिय आनंद; धर्म एटले सुख; ते धर्ममां मुख्यता कोनी? पर्यायमां क्षणिक राग छे,
बहारमां संयोग वर्ते छे अने अंतरमां त्रिकाळी ज्ञानानंद–स्वभाव पड्यो छे, आ रीते त्रिकाळी स्वभाव, क्षणिक
विभाव, अने बहारनो संयोग ए त्रणे प्रकार एकसाथे वर्ते छे, तेमां कोनी प्रधानता करवाथी धर्म थाय? कोने
मुख्य करवाथी अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय? संयोगो अने निमित्तो तो परवस्तु छे, आत्मामां तेनो
अभाव छे एटले तेना अवलंबनथी धर्म थतो नथी, अने अंदर क्षणिक पुण्य–पापना भावो थाय छे तेमां पण
आत्मानी शांति के धर्म नथी. अंतरमां चिदानंदस्वभाव धु्रव छे तेनी मुख्यता करीने तेनुं अवलंबन करतां
अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे छे, आ ज धर्मनी रीत छे. आ विधि सिवाय बीजी रीते जे धर्म मनावे, संयोगनी के
रागनी मुख्यताथी धर्म मनावे तो ते जीवने धर्मनी विधिनी खबर नथी, अने तेवुं मनावनारा देव–गुरु के
शास्त्र पण यथार्थ नथी. अहो! आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद तो आत्माना स्वभावमां ज छे. आवा आत्माना
भान पछी मुनिदशा प्रगटे तेनुं स्वरूप तो अलौकिक छे. स्वरूपमां लीन थईने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना
अमृतमां एवी लीनता थाय के आहारादिनी वृत्ति न ऊठे, वस्त्रनो ताणो पण लेवानी वृत्ति न ऊठे, आवी
आनंदनी लीनतानुं नाम चारित्र अने तप छे. हजी तो आत्माना ज्ञानानंदस्वरूपनुं सम्यक्भान पण न होय
तेने तो धर्मना पहेला पगथियानी पण खबर नथी. अहीं आचार्यदेव कहे छे के भाई! अंतरना भूतार्थ
स्वभावना अवलंबनथी तारा ज्ञानानंदस्वभावनो अनुभव कर, शुद्धनयथी तारा आत्माने जाण; अंतरनी द्रष्टि
ऊघडया वगर व्रत तप आवशे नहि. पर्वत उपर चडनारनी द्रष्टि उपरना शिखर तरफ होय छे; तेम जेने ऊंचे
चडवुं होय–ऊंची दशा प्रगट करवी होय तेनी द्रष्टि आत्माना ऊर्ध्वस्वभाव तरफ होय छे. पुण्य–पापथी पार ने
संयोगथी पार एवो ज्ञानानंद ऊर्ध्वस्वभाव छे, ते स्वभावना अवलंबनथी धर्मी मोक्षमार्गमां ऊंचे चडे छे.
चिदानंद स्वभावनी मुख्यतानी द्रष्टि वगर अनंतवार जीवे व्रत–तपना शुभपरिणाम कर्यां ने तेमां धर्म मान्यो,
पण तेनुं भवभ्रमण न मटयुं. जेम चणाने शेकतां दाळिया थाय, तेमां मीठाश आवे ने वावो तो ऊगे नहि; तेम
आत्मामां दाळिया केम थाय एटले के आनंदनो अनुभव प्रगटे ने जन्म–मरण टळे तेनी आ वात छे. ज्ञानानंद
स्वभावने ओळखीने तेमां एकाग्रतारूपी अग्निवडे शेकतां जन्म–मरणनुं बीज बळी जाय छे ने आत्मानो
अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे छे. आवी साची समजण करवी ते अपूर्व छे. भगवान महावीर प्रभुने जन्मथी ज
आवुं आत्मज्ञान तो हतुं ज, ने पछी चारित्रदशा प्रगट करीने आत्माना पूर्णानंदने भगवान आ ज भवमां
पाम्या, ने भवनो नाश करीने अपूर्व मुक्तदशा प्रगट करीने, भगवान सादिअनंत पूर्णानंद सिद्धदशामां
बिराजमान थया. आवा भगवानना जन्म–कल्याणकनो आजे मंगल दिवस छे. भगवान तो हजारो वर्ष पहेलांं
थई गया, पण तेनी स्मृति करीने वर्तमानमां पोताना आत्मामां तेवो भाव प्रगट करवो ते मंगळ छे.
चिदानंदस्वभावनुं भान करनारने साचा देव–गुरु–शास्त्रनी यथार्थ ओळखाण अने बहुमान होय छे. केसर
लेवा जाय त्यां तेनुं बारदान पण सारुं ऊंचुं होय छे, कोथळामां केसर न लेवाय; तेम आत्माना चिदानंद
स्वभावनुं जेने भान करवुं छे तेने निमित्त तरीके साचा देव–गुरु–शास्त्र केवा होय तेनी यथार्थ ओळखाण होय
छे. हजी साचा निमित्तने पण न ओळखे ने कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने निमित्त तरीके आदरे तेने तो धर्मनी पात्रता
पण नथी. साचा देव–गुरु–शास्त्र तो एम बतावे छे के भाई! तारो धर्म तारा आत्माना अवलंबने ज छे,
(अनुसंधान पाना नं. १५६ उपर)