परिपूर्ण शांति प्रगट करवा चाहे छे ने अशांति टाळवा मागे छे. तो जे शांति प्रगट करवा मागे छे ते शांति
पोताना स्वभावमां ज भरी छे. पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध ते अशांति छे ने संवर–निर्जरा–मोक्ष ते शांति छे.
पोताना ज्ञानानंदस्वभावमां ज शांति भरी छे, पण पोताना स्वभावनी यथार्थ वात जीवे कदी रुचिथी सांभळी
पण नथी. तेथी आचार्यदेव समयसारनी चोथी गाथामां कहे छे के–
परथी जुदा एकत्वनी उपलब्धि केवळ सुलभ ना.
स्वभावमां ज मारुं सुख छे’ एवी यथार्थ रुचि कदी करी नथी तेथी तेनी वात पण प्रीतिथी कदी सांभळी नथी.
ईन्द्र एकावतारी होय छे, लाखो विमाननो स्वामी छे पण अंतरमां ज्ञानानंद स्वरूपनुं भान छे, मति–श्रुत–
अवधिज्ञान सहित छे. ज्यां तीर्थंकरनो जन्म थाय त्यां जगतमां आश्चर्यनो खळभळाट थाय, ईन्द्रने
अवधिज्ञानथी खबर पडे के अहो! त्रिलोकनाथ तीर्थंकरनो अवतार थयो. तरत ज सात पगला सामे जईने
भगवानने वंदन करे छे, ने भगवाननो जन्म–कल्याणक उत्सव करवा आवे छे; अने भगवानने जोईने
भक्तिथी नाची ऊठे छे. धर्मात्माने धर्मनो एवो उल्लासभाव आव्या विना रहेतो नथी. धर्मनी प्रीति होय तेने
स्वाद तो आ रागथी पण पार छे. रागरहित अतीन्द्रिय शांतिनो स्वाद आवे एनुं नाम धर्म छे.
संयोग
प्रभु! तें बीजा उपायो र्क्या पण साची समजणनो रस्तो पूर्वे कदी लीधो नथी, अने एना विना कदी धर्म थतो नथी.
तें आत्माना भान वगर चारे गतिना अवतार अनंतवार कर्या छे, पण भव अने भवना कारण वगरनो तारो
आवे नहि. माटे जेने भवनो अंत लाववो होय ने आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद प्रगट करवो होय तेणे अंतरना धु्रव
ज्ञानानंद स्वभावने लक्षमां लईने तेनी रुचि अने बहुमान करवा जेवा छे; तेनी मुख्यता करीने तेनुं अवलंबन
करवाथी धर्म थाय छे ने भवभ्रमणनो अंत आवीने पूर्णानंदरूप मोक्षदशा प्रगटे छे.