Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १५६ : आत्मधर्म–१२८ : जेठ : २०१० :
धर्मनी शरूआत
केवी रीते थाय?
[वांकानेरमां पंचकल्याणक–प्रतिष्ठा–महोत्सव दरमियान
चैत्र सुद १० ना पूज्य गुरुदेवना प्रवचनमांथी]
शुद्ध आत्मानो अनुभव एटले के सम्यग्दर्शन केम थाय? तेनी आ वात छे. आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे,
तेनुं भान करीने तेमां लीनता वडे भगवाने सर्वज्ञता ने परिपूर्ण शांति प्रगट करी. आ आत्मा पण एवी
परिपूर्ण शांति प्रगट करवा चाहे छे ने अशांति टाळवा मागे छे. तो जे शांति प्रगट करवा मागे छे ते शांति
पोताना स्वभावमां ज भरी छे. पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध ते अशांति छे ने संवर–निर्जरा–मोक्ष ते शांति छे.
पोताना ज्ञानानंदस्वभावमां ज शांति भरी छे, पण पोताना स्वभावनी यथार्थ वात जीवे कदी रुचिथी सांभळी
पण नथी. तेथी आचार्यदेव समयसारनी चोथी गाथामां कहे छे के–
श्रुत परीचित अनुभूत सर्वने कामभोगबंधननी कथा,
परथी जुदा एकत्वनी उपलब्धि केवळ सुलभ ना.
अनादिकाळमां चैतन्यस्वभावने चूकीने ‘संयोगमां सुख छे, ने पुण्य–पापमां सुख छे’ –एवी ऊंधी रुचि
जीवे करी छे एटले तेनी ज वात प्रीतिथी सांभळी छे, पण ‘संयोगथी पार ने पुण्य–पापथी पार मारा चिदानंद
स्वभावमां ज मारुं सुख छे’ एवी यथार्थ रुचि कदी करी नथी तेथी तेनी वात पण प्रीतिथी कदी सांभळी नथी.
आत्माना ज्ञानानंद स्वरूपना अवलंबने तो संवर–निर्जरा–मोक्षरूप निर्मळदशा प्रगटे एवो स्वभाव छे.
जे आस्रव–बंधना भावो थाय छे ते चैतन्यस्वभावना अवलंबने प्रगटता नथी पण परना अवलंबने प्रगटे छे.
ईन्द्र एकावतारी होय छे, लाखो विमाननो स्वामी छे पण अंतरमां ज्ञानानंद स्वरूपनुं भान छे, मति–श्रुत–
अवधिज्ञान सहित छे. ज्यां तीर्थंकरनो जन्म थाय त्यां जगतमां आश्चर्यनो खळभळाट थाय, ईन्द्रने
अवधिज्ञानथी खबर पडे के अहो! त्रिलोकनाथ तीर्थंकरनो अवतार थयो. तरत ज सात पगला सामे जईने
भगवानने वंदन करे छे, ने भगवाननो जन्म–कल्याणक उत्सव करवा आवे छे; अने भगवानने जोईने
भक्तिथी नाची ऊठे छे. धर्मात्माने धर्मनो एवो उल्लासभाव आव्या विना रहेतो नथी. धर्मनी प्रीति होय तेने
धर्मात्मा प्रत्ये आदरभाव आव्या विना रहेतो नथी. पण धर्मीने अंतरमां भान छे के मारा ज्ञानानंद स्वरूपनो
स्वाद तो आ रागथी पण पार छे. रागरहित अतीन्द्रिय शांतिनो स्वाद आवे एनुं नाम धर्म छे.
पर्यायमां रागादिभावो देखाय छे–बंधन देखाय छे, छतां तेनाथी रहित अबंध ज्ञानस्वभावनो अनुभव
केम थई शके? एम शिष्ये पूछयुं छे, तेने अहीं आचार्यदेव समजावे छे के हे भाई! रागादिभावो के कर्मोनो
संयोग
तारा (अनुसंधान पाना नं. १५७ उपर)
(अनुसंधान पाना नं. १५५ थी चालु)
रागना के निमित्तना अवलंबने तारो धर्म नथी. आवुं अपूर्व भान करवुं ते ज धर्मनी पहेली शरूआतनी विधि छे.
प्रभु! तें बीजा उपायो र्क्या पण साची समजणनो रस्तो पूर्वे कदी लीधो नथी, अने एना विना कदी धर्म थतो नथी.
तें आत्माना भान वगर चारे गतिना अवतार अनंतवार कर्या छे, पण भव अने भवना कारण वगरनो तारो
ज्ञानानंद स्वभाव छे, ते स्वभावनी द्रष्टि कर तो भवनो अंत आवे; आ सिवाय बहारना कारणथी भवनो अंत
आवे नहि. माटे जेने भवनो अंत लाववो होय ने आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद प्रगट करवो होय तेणे अंतरना धु्रव
ज्ञानानंद स्वभावने लक्षमां लईने तेनी रुचि अने बहुमान करवा जेवा छे; तेनी मुख्यता करीने तेनुं अवलंबन
करवाथी धर्म थाय छे ने भवभ्रमणनो अंत आवीने पूर्णानंदरूप मोक्षदशा प्रगटे छे.