Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १५८ : आत्मधर्म–१२८ : जेठ : २०१० :
लक्ष्मी, शरीर वगेरे संयोगोमां सुख छे एम अज्ञानीए भ्रांतिथी मान्युं छे. पण संयोगमां सुख
कदी जोयुं नथी. पुण्य–पापनी आकुळतानी वृत्ति ऊठे ते दुःख छे, पण अज्ञानीने ते दुःख देखातुं
नथी. आत्मानो शांत अनाकुळ चैतन्य–स्वभाव छे, ते स्वभावना अवलंबने ज अनाकुळ सुख
प्रगटे छे.
जेम अग्निनी ज्योतनो स्वभाव पाचक, प्रकाशक अने दाहक छे; तेम भगवान आत्मा
चैतन्य–ज्योत छे; तेना सम्यक् दर्शननो स्वभाव एवो पाचक छे के आखा चैन्तन्यस्वभावने
प्रतीतिमां पचावी दे छे; सम्यग्ज्ञाननो स्वभाव स्व–पर प्रकाशक छे; अने सम्यक् चारित्रनो
स्वभाव विकारने बाळीने भस्म करवानो छे; आवा दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वभाववाळो
भगवान आत्मा पोते आनंदथी भरपूर छे. आत्मानो आनंद बहारमां नथी, ने आत्मानुं दुःख
पण बहारमां नथी. परमां सुख छे एम जे माने छे तेने आत्माना सुखनी श्रद्धा नथी, परमां
सुख माननारो आत्माना सुखने मानतो नथी. भाई रे! तारुं सुख तारा आत्माथी बहार न
होय. शरीरथी–पैसा वगेरेथी मने सुख मळशे एम जे जीव परपदार्थोने आत्मबुद्धिथी ग्रहण
करे छे ते बहिरात्मा छे. मिथ्याश्रद्धा, मिथ्याज्ञान ने मिथ्याचारित्र रूपी त्रिदोषनो रोग
अनादिथी जीवने लागु पड्यो छे, तेथी तेने आकुळतानुं दुःख देखातुं नथी, पण संयोगमां
सुखने माटे झांवा नाखे छे ते ज दुःख छे. ते दुःख आत्मानो कायमी स्वभाव नथी पण विकृति
छे. सुख आत्मानो कायमी स्वभाव छे ने दुःख तेनी क्षणिक विकृत दशा छे. जो आत्माना
स्वभावमां ज सुख न होय तो बहारथी आवे नहि; अने दुःख जो आत्मानो स्वभाव होय तो
ते कदी टळी शके नहि. तेमज आत्मानी क्षणिक अवस्थामां जो दुःख न होय तो तेने वर्तमानमां
अतीन्द्रिय पूर्ण आनंदनो अनुभव होवो जोईए. माटे नक्की करवुं जोईए के संयोगनी
अनुकूळता के प्रतिकूळतामां जीवनुं सुख–दुःख नथी. जीवनी पोतानी क्षणिक अवस्थामां अज्ञान
अने विकारीवृत्तिओ थाय छे ते दुःखरूप छे, ते दुःख जीवनो कायमी स्वभाव नथी, जीवनो
कायमी स्वभाव तो अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण छे. आवा ज्ञानानंद स्वभावनी रुचि
करीने तेनी अंर्तप्रतीति करतां चैतन्यना अतीन्द्रिय सुखनुं वेदन थाय छे, तेनुं नाम धर्म छे.
भाई, पहेलांं तुं प्रतीत कर के मारुं सुख मारामां छे, संयोगमां मारुं सुख नथी. चैतन्य–
स्वभावने चूकीने बहारना विषयो उपर लक्ष जतां शुभ–अशुभ लागणी थाय ते दुःख छे.
संसार शुं छे? संसार ते जीवनी अरूपी विकारी अवस्था छे. बहारना संयोगमां संसार नथी.
गरीबनी झूंपडी पण अहीं पडी रहे छे ने मोटा चक्रवर्तीना महेल पण अहीं ज पड्या रहे छे.
जो ते संयोगोमां जीवनो संसार होय तो ते संयोगो छूटतां जीवनो संसार पण छूटी जाय ने
तेनी मुक्ति ज थई जाय! पण एम नथी. ज्ञानानंद स्वरूपने चूकीने ‘पर मारां, शरीरादिकनी
क्रिया मारी’ एवो जे पर पदार्थमां अहंपणानो मिथ्याभाव छे ते ज संसारनुं मूळ छे, ने मरतां
ते मिथ्याभावने साथे लई जाय छे. आनुं नाम संसार छे. बहारना संयोगोमां जीवनो धर्म के
अधर्म नथी, धर्म के अधर्म ते जीवनी पोतानी अवस्थानो अरूपी भाव छे ने तेनो कर्ता जीव
पोते छे.
अज्ञानी जीव पोताना स्वभावमां सुख छे तेने जाणतो नथी, ते सुखनो उपाय पण
जाणतो नथी, अने बहारमां प्रतिकूळ संयोगोने दूर करीने दुःख टाळवा मांगे छे, ने सुख पण
बहारना