अपमानना असह्य वेदनथी दुःखी थईने शरीर पण छोडवा मांगे छे. एटले शरीरने दूर करीने
पण दुःख मुक्त थईने सुखी थवा मांगे छे. शरीर छोडीने पण सुखी थवा मांगे छे, तो तेनो शुं
अर्थ थयो? शरीर जतां शुं रहेशे? एकलो आत्मा रहेशे. एटले शरीर विना पण सुखी थई
शकाय छे–शरीर वगर एकला आत्मामां सुख छे एटलुं तो साबित थयुं. संयोगमां सुख नथी
पण आत्मामां ज सुख छे आवी ओळखाण करे, तो संयोगनी रुचि छूटे ने आत्माना
स्वभावनी रुचि थाय. आत्माना ज्ञानानंदस्वभावनी सम्यक् प्रतीति अने एकाग्रता करतां
अतीन्द्रिय सुख प्रगटे छे. आ सिवाय बहारमां सुख नथी तेमज बहारना कोई उपायथी सुख
प्रगटतुं नथी. आत्मानुं ज्ञानानंद स्वरूप शुं छे तेना अंतरभान वगर, बहारमां धर्मनुं साधन
मानीने गमे तेटला उपाय करे ते बधा उपायो जूठा छे. भाई, सुखना उपाय कांईक जुदा छे,
अनंतकाळमां कदी एक सेकंड पण तें वास्तविक उपायनुं सेवन कर्युं नथी. जे कांई कर्युं ते बधुं
एकडा वगरना मींडा समान छे. आत्मानुं यथार्थ स्वरूप शुं छे, तेने दुःख केम छे अने तेने सुख
केम प्रगटे ते वात सत्समागमे श्रवण–मनन करीने समजवी जोईए. आत्मानी साची समजण
थतां धर्मीनी द्रष्टि पलटी जाय छे. अहो! हुं तो चैतन्यनिधि आत्मा छुं, आ देहादिक संयोगो
पर छे, तेमां क्यांय मारुं सुख नथी ने हुं तेनो स्वामी नथी. मारा आत्मामां ज सुख स्वभाव
भर्यो छे, आम स्वभावसामर्थ्यनुं अपूर्व भान थाय छे; ने आवुं भान थतां ज धर्मनी शरूआत
थाय छे; आ सिवाय बीजा कोई उपाये धर्म के सुख थतुं नथी.
त्रणकाळमां करी शकतो नथी. भाई! जडनी ने परनी
क्रिया करवाना अभिमानमां तारो आत्मा रोकाई
गयो पण ते परनी क्रिया तारा हाथमां नथी. तारुं
ज्ञानानंद स्वरूप परथी भिन्न छे तेनी ओळखाण
कर; तेनी ओळखाण वगर बीजी कोई रीते भवनो
अंत आवे तेम नथी.
क्रियानुं अभिमान करीने चार गतिमां रझळ्यो छे. आत्मा तो ज्ञानस्वरूप छे, जडथी ते जुदो छे;
पोताना ज्ञानानंद स्वरूपनुं भान करीने शुद्ध उपयोगरूप निर्मळ भावोने करे, अने कां तो
ज्ञानानंद स्वरूपने भूलीने अज्ञान भावे रागादि भावोनो कर्ता थाय; पण शरीरादिक जडनी
क्रियाने तो