Atmadharma magazine - Ank 128
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १६० : आत्मधर्म–१२८ : जेठ : २०१० :
कोई जीव करी शकतो नथी, जीव परने बचावी शकतो नथी ए वात खरी, पण एनो अर्थ
एवो नथी के परजीवने बचाववानो भाव ते पाप छे. परजीवने बचाववानो शुभभाव ते धर्म
नथी तेम पाप पण नथी, परंतु ते पुण्य छे. अने परजीवने हुं बचावी शकुं छुं एवी ऊंधी
मान्यता ते मिथ्यात्व छे, ने मिथ्यात्व ते मोटुं पाप छे. भूख्या ढोरने घास–पाणी खवराववानो
भाव, के बळता ढोर वगेरेने उगारवानो भाव तेने कोई पाप मनावे तो तेनी वात जूठी छे.
अहीं भावनी वात छे, बहारनी क्रिया थवी के न थवी ते आ आत्माने आधीन नथी. परजीव
बचे के न बचे ते तो तेना आयुष्य प्रमाणे थाय छे; पण हुं परने बचावुं एवी लागणी थाय ते
पुण्य छे, ते पाप नथी, तेमज ते धर्म पण नथी. जीव शुं, जड शुं, पाप शुं, पुण्य शुं, ने धर्म शुं?
ए बधा तत्त्वोने जेम छे तेम ओळखवा जोईए.
पर जीवने सुख थाय के दुःख थाय, ते जीवे के मरी जाय तेनुं पुण्य–पाप आ जीवने नथी,
पण हुं परने सुखी करुं, परने दुःखी करुं, जीवने बचावुं, के जीवने मारुं, एवो जे शुभ–अशुभ
भाव जीव करे छे तेनुं पुण्य के पाप जीवने थाय छे. हजी धर्म तो जुदी ज चीज छे. प्रभो! तारा
चैतन्यतत्त्वना ज्ञान विना धर्म थाय नहि. भाई! जडनी ने परनी क्रिया करवाना अभिमानमां
तारो आत्मा रोकाई गयो, पण ते परनी क्रिया तारा हाथमां नथी. तारो ज्ञानानंद स्वरूप
आत्मा परथी भिन्न शुं चीज छे, तेनी ओळखाण कर, ते अपूर्व धर्म छे.
केवळी भगवान सर्वज्ञ परमात्मानुं वीतरागी जीवन थई गयुं छे; तेमने परोपकार
वगेरेनी शुभवृत्ति पण होती नथी. ईच्छा वगर सहजपणे दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश नीकळे छे.
तेमां भगवाने एम कह्युं के : हे जीवो! आत्मा उपयोग स्वरूप छे, पोताना उपयोग सिवाय
परनी क्रिया कोई आत्मा त्रणकाळमां करी शकतो नथी. ज्ञानी के अज्ञानी कोई जीव परमां एक
रजकणनो पण फेरफार करवा समर्थ नथी. जडनी क्रिया स्वतंत्र छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी.
आत्मा पोताना स्वभावने भूलीने, परनुं हुं करुं एवी ऊंधी मान्यता करीने अज्ञानभावे शुभ–
अशुभ उपयोग रूपे परिणमे ते संसारनुं कारण छे; अने परथी भिन्न–रागथी भिन्न पोताना
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानुं सम्यक् भान करीने अंतर्मुख शुद्ध उपयोगरूपे परिणमे ते धर्म छे ने ते
मोक्षनुं कारण छे.
जाणतां धर्मीने पोताना ज्ञानानंद स्वरूप आत्मानी ज अधिकता वर्ते छे, एटल नवे तत्त्वोमां
धर्मीने पोतानो आत्मा एक ज भूतार्थस्वभावपणे प्रकाशमान छे. स्व–परप्रकाशक ज्ञाननी
स्वच्छतामां नवे तत्त्वो जणाय छे, पण नवतत्त्वोने जाणतां धर्मीनुं ज्ञान परमां के विकारमां
एकत्व पामतुं नथी; एकाकार चिदानंद स्वभावनी एकतापणे ज धर्मीनुं ज्ञान वर्ते छे; ए रीते
धर्मीनी द्रष्टिमां एक शुद्धआत्मा ज प्रकाशमान छे.
आत्मानुं ज्ञान परने जाणतां तेमां ज एकपणुं मानीने रोकाई जाय ने पोताना भिन्न
ज्ञानस्वभावने भूली जाय ते मिथ्याज्ञान छे, ने ते संसार–भ्रमणनुं कारण छे. ज्ञान अंतर्मुख
थईने पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने जाणीने तेमां एकता करे ते मोक्षनुं कारण छे, तेमां चैतन्यनी
शांतिनुं वेदन छे. पछी ते ज्ञान पुण्य–पाप वगेरेने जाणे तोपण तेमां एकता पामतुं नथी.
अहो, भगवानना समवसरणमां देडकां ने चकलां पण अंतरना स्वभावनी सन्मुख थईने
आवुं