एवो नथी के परजीवने बचाववानो भाव ते पाप छे. परजीवने बचाववानो शुभभाव ते धर्म
नथी तेम पाप पण नथी, परंतु ते पुण्य छे. अने परजीवने हुं बचावी शकुं छुं एवी ऊंधी
मान्यता ते मिथ्यात्व छे, ने मिथ्यात्व ते मोटुं पाप छे. भूख्या ढोरने घास–पाणी खवराववानो
भाव, के बळता ढोर वगेरेने उगारवानो भाव तेने कोई पाप मनावे तो तेनी वात जूठी छे.
अहीं भावनी वात छे, बहारनी क्रिया थवी के न थवी ते आ आत्माने आधीन नथी. परजीव
बचे के न बचे ते तो तेना आयुष्य प्रमाणे थाय छे; पण हुं परने बचावुं एवी लागणी थाय ते
पुण्य छे, ते पाप नथी, तेमज ते धर्म पण नथी. जीव शुं, जड शुं, पाप शुं, पुण्य शुं, ने धर्म शुं?
ए बधा तत्त्वोने जेम छे तेम ओळखवा जोईए.
भाव जीव करे छे तेनुं पुण्य के पाप जीवने थाय छे. हजी धर्म तो जुदी ज चीज छे. प्रभो! तारा
चैतन्यतत्त्वना ज्ञान विना धर्म थाय नहि. भाई! जडनी ने परनी क्रिया करवाना अभिमानमां
तारो आत्मा रोकाई गयो, पण ते परनी क्रिया तारा हाथमां नथी. तारो ज्ञानानंद स्वरूप
आत्मा परथी भिन्न शुं चीज छे, तेनी ओळखाण कर, ते अपूर्व धर्म छे.
तेमां भगवाने एम कह्युं के : हे जीवो! आत्मा उपयोग स्वरूप छे, पोताना उपयोग सिवाय
परनी क्रिया कोई आत्मा त्रणकाळमां करी शकतो नथी. ज्ञानी के अज्ञानी कोई जीव परमां एक
रजकणनो पण फेरफार करवा समर्थ नथी. जडनी क्रिया स्वतंत्र छे, तेनो कर्ता आत्मा नथी.
आत्मा पोताना स्वभावने भूलीने, परनुं हुं करुं एवी ऊंधी मान्यता करीने अज्ञानभावे शुभ–
अशुभ उपयोग रूपे परिणमे ते संसारनुं कारण छे; अने परथी भिन्न–रागथी भिन्न पोताना
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानुं सम्यक् भान करीने अंतर्मुख शुद्ध उपयोगरूपे परिणमे ते धर्म छे ने ते
मोक्षनुं कारण छे.
धर्मीने पोतानो आत्मा एक ज भूतार्थस्वभावपणे प्रकाशमान छे. स्व–परप्रकाशक ज्ञाननी
स्वच्छतामां नवे तत्त्वो जणाय छे, पण नवतत्त्वोने जाणतां धर्मीनुं ज्ञान परमां के विकारमां
एकत्व पामतुं नथी; एकाकार चिदानंद स्वभावनी एकतापणे ज धर्मीनुं ज्ञान वर्ते छे; ए रीते
धर्मीनी द्रष्टिमां एक शुद्धआत्मा ज प्रकाशमान छे.
थईने पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने जाणीने तेमां एकता करे ते मोक्षनुं कारण छे, तेमां चैतन्यनी
शांतिनुं वेदन छे. पछी ते ज्ञान पुण्य–पाप वगेरेने जाणे तोपण तेमां एकता पामतुं नथी.
अहो, भगवानना समवसरणमां देडकां ने चकलां पण अंतरना स्वभावनी सन्मुख थईने
आवुं