Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २०१० : आत्मधर्म–१२९ : १७३ :
स्वरूपनी प्राप्ति सुगम छे,
परने पोतानुं करवुं अशक्य छे


आ देहदेवळमां रहेलो चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा शुं चीज छे ते वात जीवे कदी जाणी नथी, अने
एने जाण्या विना चार गतिना अवतार कर्या छे. पोताना स्वरूपनुं विस्मरण करीने परने ज जाणवामां काळ
गाळ्‌यो छे, पण पर चीज पोतानी थई शकती नथी. शरीरादिक पर चीज छे तेमांथी कदी आत्मस्वरूपनी प्राप्ति
थती नथी. क्षणिक पुण्य–पापनी वृत्तिमांथी पण चैतन्यस्वरूपनी प्राप्ति थाय तेम नथी. चिदानंदस्वरूप त्रिकाळ
परिपूर्ण सामर्थ्यथी भरपूर छे तेना अवलंबने ज प्राप्तनी प्राप्ति थाय छे. आ अपेक्षाए चैतन्यस्वरूपनी प्राप्ति
सुगम छे, ने परनी प्राप्ति करवी ते तो अशक्य छे. आवुं यथार्थ ज्ञान जीवे पूर्वे कदी कर्युं नथी ने परचीजने
पोतानी करवा मथ्यो छे, पण एक रजकणने पण पोतानो करी शक्यो नथी. अंतरमां पोतानी चीज छे तेमां
नजर करे तो न्याल थई जाय तेवुं छे. जेम समुद्रमां तरंग ऊठे छे तेम आत्मामां पण तरंग ऊठे छे; पण
अनादिथी चैतन्यस्वरूपने भूलीने पुण्य–पाप विकार ते हुं एम मानीने क्षणिक विकारना ज तरंग उत्पन्न कर्या
छे, परंतु “हुं पुण्य–पापथी पार ज्ञानानंद स्वरूप छुं” एवा सम्यग्ज्ञानना तरंग कदी प्रगट कर्या नथी. जो
चैतन्यस्वरूपने जाणीने एकवार पण सम्यग्ज्ञानरूपी तरंग प्रगट करे तो अल्पकाळमां मुक्ति थया विना रहे
नहि.
जीवे पोताना चैतन्यस्वरूपने जाणवानो उद्यम कर्यो नथी अने बहारमां परचीजने पोतानी मानीने तेमां
उथलपाथल करवानुं अभिमान कर्युं छे. जेम मोटो बळद उकरडाना ढगलाने उथामीने तेमां पोतानुं जोर माने छे,
तेम अज्ञानी जीव परचीजनुं अभिमान करीने तेमां पोतानुं जोर माने छे ने परने माटे प्रयत्न करीने शुभ–
अशुभ वृत्तिओ करे छे, ते विकारी तरंग छे. परनुं अभिमान अनादिथी कर्युं छे पण परचीजना एक रजकणने
पण पोतानो करी शक्यो नथी. पोताना स्वभावनी प्राप्तिनो उद्यम करे तो क्षणमां तेनी प्राप्ति थई शके छे, पण
परचीज कदी पोतानी थई शकती नथी. जेम लींडीपीपरमां चोसठपोरी तीखाश थवानो स्वभाव भर्यो छे तेथी
तेमांथी ते चोसठ पोरी तीखाश प्रगटी शके छे, पण ते लींडीपीपरमांथी साकर न आवे, केमके तेमां तेवो स्वभाव
नथी. तेम चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मामां सर्वने जाणवा–देखवानो स्वभाव परिपूर्ण भर्यो छे, तेथी तेमांथी
सर्वने जाणे–देखे एवी सर्वज्ञता अने सर्वदर्शीपणुं प्रगट थई शके छे. पण शरीरादिक पर चीजो आत्माथी भिन्न
छे. ते शरीरादिकना संयोगने आत्मा पोताना करी शकतो नथी. भूतकाळमां अमुक शरीर वगेरेनो संयोग वर्ततो
हतो––ते शरीरादिकनुं अत्यारे ज्ञान थई शके छे, पण ते शरीरादिकना संयोगने अत्यारे जीव मेळवी शकतो नथी.
ए ज प्रमाणे वर्तमानमां शरीर–ईन्द्रियो वगेरे मोळां पडे तेने पण ज्ञान जाणे पण तेनी अवस्थाने रोकी शके
नहि. आ रीते आत्मानो स्वभावधर्म सर्वने जाणवा देखवानो ज छे, पण परने पोतानुं करे के पोते परनो थाय
एवो एनो स्वभाव नथी. पदार्थोनी त्रणकाळनी हालतने जाणवानी ज्ञाननी ताकात छे एवा
ज्ञानानंदस्वभावनी सन्मुख थईने तेनी प्रतीत अने अनुभव करतां आत्मामां अपूर्व ज्ञान–आनंदना तरंग ऊठे
तेनुं नाम धर्म छे.
जगतनी कोई पर चीज मारी नथी ने हुं जगतमां कोईनो नथी, क्षणिक पुण्य–पापनी लागणी थाय
तेटलो पण हुं नथी, हुं तो ज्ञानानंदस्वभाव छुं, त्रणकाळने जाणवानुं परिपूर्ण सामर्थ्य मारामांथी ज प्रगटे छे.
वर्तमानमां प्रगट ज्ञान थोडुं होवा छतां अंदरमां परिपूर्ण ज्ञानशक्ति पडी छे. परिपूर्ण ज्ञानशक्ति अंदर न भरी
होय तो आ अल्पज्ञान पण क्यांथी आवे? थोडुं ज्ञान व्यक्त छे तो अनुमानथी नक्की थई शके छे के आ
वस्तुमां पूरुं जाणे