Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १७४ : आत्मधर्म–१२९ : अषाढ : २०१० :
एवो ज्ञानस्वभाव भर्यो छे. जडमां जाणवानो स्वभाव नथी तेथी ते बिलकुल जाणतुं नथी. जेनामां जे स्वभाव
होय ते परिपूर्ण ज होय, अधूरो न होय; लींडीपीपरमां थोडी तीखाश प्रगट थई होय, पण त्यां नक्की थाय छे के
आ चीजमां तीखाशनो स्वभाव परिपूर्ण भर्यो छे तेमांथी आ तीखाश प्रगटी छे. पण ऊंदरनी लींडीने गमे
तेटली घसो तोपण जराय तीखाश नथी प्रगटती, केमके तेनामां तीखाशनो स्वभाव ज नथी. जेनामां जे
स्वभाव भर्यो होय तेमांथी तेनी प्राप्ति थाय. भाई! तारा आत्मामां ज्ञानस्वभाव छे, तेमांथी पूर्णज्ञाननी प्राप्ति
थई शके छे माटे तेनी प्रतीत कर. ए सिवाय परचीज तारी नथी माटे तेमांथी अहंपणुं छोड. मारा ज्ञाननो अल्प
विकास वर्तमानमां छे पण मारो स्वभाव पूर्णज्ञाननी ताकात धरावे छे. अल्पज्ञान जेटलो ज हुं नथी, पण
परिपूर्ण ज्ञानस्वभावनी ताकातवाळो हुं छुं. पूर्वे क्रूर विकारभावो कर्या होय ते अत्यारे ज्ञानमां याद आवे छे,
पण तेनुं ज्ञान करता अत्यारे ज्ञान साथे ते विकार आवी जतो नथी. माटे ते विकार पोतानो स्वभाव नथी,
पण विकारने जाणवानो पोतानो स्वभाव छे. त्रण काळने जाणवानो पोतानो स्वभाव छे. आवा
ज्ञानस्वभावने जाणीने तेनी प्राप्ति करवी ते सुगम छे, केमके सम्यक् प्रयत्नथी अल्पकाळमां तेनी प्राप्ति थई शके
छे. अने पर चीज तो पोतानी अनंतकाळमां पण थई शकती नथी, तेने पोतानी करवानो उद्यम तो व्यर्थ छे.
चैतन्यस्वभावनी प्राप्तिनो उद्यम करे अने तेनी प्राप्ति न थाय एम कदी बने नहि. माटे स्वरूपनी प्राप्ति सुगम
छे. आवा स्वरूपनी रुचि थवी ने परनो अहंकार छूटवो तथा पुण्य–पापनी रुचि छूटवी ते सम्यग्दर्शननो उपाय
छे.
भाई! तुं विचार तो कर के तारुं स्वरूप शुं छे? आ जगतमां ताराथी शुं कार्य थई शके छे, ने शुं कार्य
ताराथी नथी थई शकतुं? भाई, तुं तो ज्ञान छो, ज्ञान सिवाय पर चीज तारी नथी ने ते पर चीजनुं तुं कांई
करी शकतो नथी. तारुं ज्ञानस्वरूप छे तेनी तुं प्रतीत कर. अज्ञानी पोताना ज्ञानस्वरूपने भूलीने ‘पर मारां’
एम मफतनो अभिमान करे छे. जेम कोई गांडो माणस नदी किनारे बेठो हतो, त्यां राजानुं लश्कर त्यां आव्युं
अने नदी किनारे पडाव नाख्यो. गांडो माणस तेने जोईने कहे के ‘आ मारो हाथी, आ मारुं लश्कर.. ’ थोडीवार
थई त्यां राजानुं लश्कर त्यांथी चालवा मांड्युं. त्यारे गांडो कहे छे के “अरे, तमे मारी रजा वगर क्यां चाल्या
जाव छो? ” पण भाई! ए तो बधुं एना कारणे आव्युं हतुं ने एना कारणे चाल्युं जाय छे. तारा कारणे ते कोई
आव्यां न हतां ने ताराथी ते रोकाय तेम नथी, तुं तो मफतनो तेनुं अभिमान करे छे. तेम अज्ञानी जीव परने
पोतानुं मानीने गांडा माणसनी जेम तेनुं अभिमान करे छे, शरीर मारुं, शरीरनी क्रिया मारी एम अज्ञानथी
माने छे. शरीर वगेरे पर चीजोनो संयोग–वियोग तो तेना कारणे थाय छे. तेने जाणतां अज्ञानी जीव मफतनो
अभिमान करे छे. पण भाई! तुं तो ज्ञान छो, पदार्थोने जाणवानो तारो स्वभाव छे, पण पर चीजने मेळवे के
दूर करी शके एवी ताकात तारामां नथी. तारो वहालो दीकरो मरतो होय अने तेने बचाववानी तारी ईच्छा
होय, छतां तुं तेने बचावी शकतो नथी, तो बीजाने तुं बचावी दे एवी तारी ताकात नथी, जीवने ईच्छा थाय
पण ते ईच्छाने लीधे परनुं कार्य थतुं नथी. अने ईच्छा थई ते पण खरेखर जीवनो स्वभाव नथी. जीवनो
स्वभाव तो जाणवानो छे. आवा जाणनार स्वभावने ओळखीने तेनी प्राप्ति करवा मागे तो ते थई शके छे,
माटे चैतन्यस्वरूपनी प्राप्ति सुगम छे.
सधनपणुं हो के निर्धनपणुं हो तेने जीव जाणे छे, पण निर्धनता वखते सधनता लावी द्ये एवी जीवनी
ताकात नथी. सधनता वखते निर्धनतानुं ज्ञान थाय, ने निर्धनता वखते सधनतानुं ज्ञान थाय, बंने दशानुं
ज्ञान एकसाथे थई शके, पण ते बंने दशाने जीव भेगी न करी शके. निर्धनता ते कांई दोष नथी पण ‘हुं निर्धन’
एवी दीनबुद्धि थवी ते दोष छे. ‘हुं तो ज्ञान छुं, संयोग मारो नथी, हुं तो संयोगनो जाणनार ज्ञानानंदस्वभाव
छुं’ आवुं अंर्तभान करवुं ते प्रथम धर्म छे.
[चूडा गाममां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन, वीर सं. २४८०, वैशाख सुद ८]