प्रभुतानुं सामर्थ्य छे तेने ओळखीने तेनी प्रतीत करवी ते अपूर्व प्रयत्न छे, ए
सिवाय लौकिक विद्यानुं जाणपणुं होय ते कांई अपूर्व नथी.
आचार्यदेव सम्यग्दर्शननी रीत समजावे छे.
ज्ञानस्वरूपआत्मा ते जीवतत्त्व छे, अने शरीर ते अजीव तत्त्व छे. शरीर अने जीव एक होय तो शरीर प्रमाणे
ज ज्ञान होवुं जोईए, पण तेम बनतुं नथी. शरीर नानुं होय छतां ज्ञाननी घणी ऊग्रता होय, अने शरीर घणुं
मोटुं होय छतां ज्ञान ओछुं होय आवुं बने छे, केमके ज्ञान चीज शरीरथी जुदी छे.
आवी, पण तेना स्वभावमां जे तीखाश भरी छे ते ज प्रगट थाय छे. ऊंदरनी लींडीने घसो तो तेमां तीखाश
नहि आवे, केमके तेनामां तेवो स्वभाव नथी. तेम शरीर जड छे, ते शरीरनी क्रियामां ज्ञान नथी. आत्मा
ज्ञानानंदस्वरूप छे, तेना स्वभावमां ज केवळज्ञान थवानी ताकात छे. अंतरना ज्ञानस्वरूपनी प्रतीत करीने तेमां
एकाग्र थतां केवळज्ञान प्रगटी जाय छे. ते केवळज्ञान बहारथी के पुण्य पापमांथी आव्युं नथी पण आत्मामां
स्वभावसामर्थ्य हतुं तेमांथी ज ते प्रगट थयुं छे. आवा स्वभावसामर्थ्यने ओळखीने तेनी प्रतीत करवी ते प्रथम
धर्म छे, ने ते ज सम्यग्दर्शननी रीत छे.
आव्यो छे, अने पैसा वगेरे मळवा ते पण पूर्वना पुण्यनुं फळ छे, वर्तमान डहापणने लीधे पैसा मळे छे एम
नथी. बहारना जडना काम मारी बुद्धिने लईने थाय एम अज्ञानी माने छे, ते तेनो भ्रम छे. आत्मा
ज्ञानानंदस्वरूप छे, ते जडथी भिन्न छे, जडनां काम आत्मा करे एम कदी बनतुं नथी. जीव पोताना भावमां
शुभ–अशुभ परिणाम करे, पण तेना परिणामने लीधे परनां काम थई जाय एम बनतुं नथी. जडनी अवस्था
जडना कारणे थाय छे. मारे लीधे जडनी अवस्था थाय छे एम मानवुं ते जड साथे एकपणानी मिथ्याबुद्धि छे;
तेमज जड पदार्थोने लीधे मने तेनुं ज्ञान थाय छे एम मानवुं ते पण जडचेतननी एकत्वबुद्धि छे. हुं तो ज्ञान छुं,
मारो स्वभाव ज जाणवानो छे, स्व–परने जाणवानी मारा स्वभावनी ताकात छे आवा पोताना स्वभावनी
प्रतीत करीने तेमां एकाग्र थतां परिपूर्ण ज्ञान प्रगटी जाय छे ने रागादिनो अभाव थई जाय छे, पछी तेने
संसारपरिभ्रमण रहेतुं नथी.