दरेक तत्त्व पोते ज क्षणे क्षणे रूपांतर थईने पोताना कार्यने करे छे. जगतमां जे तत्त्व होय ते पोते कायम टकीने
समये समये पोतानी हालतनुं रूपांतर करे छे, कोई बीजो तेने टकावनार के बदलावनार नथी. धर्मी आम जाणे
छे के हुं तो ज्ञानस्वरूप जीव छुं, स्व–परने जाणवानुं मारुं कार्य छे, ए सिवाय परजीवोनुं कार्य मारुं नथी, अने
शरीर वगेरे जड तत्वोनुं कार्य पण मारुं नथी. शरीरनी हालत थाय तेनो हुं जाणनार छुं, पण ते अवस्थाने थती
रोकवानी के तेने बदलाववानी मारी ताकात नथी. हजी तो जीव–अजीव वगेरे तत्त्वोनुं भिन्न–भिन्न स्वरूप शुं
छे तेने ओळखवानी आ वात छे. जीव–अजीव वगेरे तत्त्वोने जेम छे तेम जाणीने, ते नव–तत्त्वोना भेदनो
विकल्प पण छोडीने, ज्ञानानंद स्वरूप आत्मानी सन्मुख थईने तेनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे.
प्रभो! तारा स्वभावमां प्रभुतानी ताकात पडी छे तेनी प्रतीत कर. अंतरमां पूर्णज्ञान स्वभाव पड्यो छे तेनी
जेने प्रतीत अने ओळखाण नथी ते जीव एम माने छे के परज्ञेयोने लीधे मने ज्ञान थाय छे; पण ज्ञान तो
अंतरनी शक्तिमांथी खीले छे एम ते मानतो नथी. बहारनी चीजोमांथी मारुं कांईक हित आवशे, बहारना
पदार्थोमांथी मारुं ज्ञान आवशे एवा भ्रमने लीधे अनादिथी जीव संसारमां रखडे छे. अंतरमां पोतानो
ज्ञानानंदस्वभाव छे, तेनी सन्मुख थईने तेने जाणतां अंशे निर्विकारी शांतिनो अनुभव थाय छे; त्यारे धर्मनी
परमात्मदशा छे. ए परमात्मदशा थई जाय पछी आहारादि होता नथी, शरीर पण अशुचिरहित महासुंदर
परमऔदारिक थई जाय छे. आवी परमात्मदशा प्रगट्यां पहेलांं, धर्मनी शरूआतमां ज जीवादि तत्त्वोनी केवी
ओळखाण होय तेनी आ वात छे.
दयादिना शुभभाव थाय तेने कोई पाप मनावतुं होय तो ते वात जूठी छे. दया–दानादिना भाव ते पाप नथी
पण पुण्य छे. शास्त्रोमां तीव्र पापभावोथी जीवोने छोडाववा माटे दान–दया वगेरेनो उपदेश पण आपे छे.
पद्मनंदीपंचविंशतिमां दानअधिकारमां मुनिराज दाननो उपदेश आपतां कहे छे के अरे भाई! पूर्वना पुण्यने
लीधे तने आ लक्ष्मी वगेरेनो संयोग मळ्या छे, तो अत्यारे देव–गुरु–धर्मनी भक्ति–प्रभावना वगेरे
शुभकार्योमां तेनो उपयोग कर. संसारना कामोमां लक्ष्मी वापरे ते तो पापनुं कारण छे. भाई, दाझेली खीचडीना
उकडीया कागडाने मळे, त्यां ते कागडो पण को.. को करीने बीजा कागडाने भेगा करीने खाय छे; तो पूर्वे तारा
गुण दाझीने विकार थयो त्यारे पुण्यनो राग थयो ने पुण्य बंधाया, ते पुण्यना फळमां तने आ लक्ष्मी मळी, ते
लक्ष्मी तुं दानादिकमां न वापर ने एकलो खा, तो पेला कागडा करतांय तुं गयो!! माटे भाई! दया–दान,
देवगुरु–धर्मनी प्रभावना वगेरेमां तारी लक्ष्मीनो भाग काढ. आवो शुभरागनो उपदेश शास्त्रमां आवे. त्यां
कोई एम कहे के भूख्या प्राणीने भोजन देवानो भाव ते पाप छे तो तेने पुण्यतत्त्वनी खबर नथी. अहीं
पुण्यतत्त्वने ओळखाववुं छे, पुण्यथी धर्म थाय छे एम अहीं नथी बताववुं. पुण्य ते धर्म नथी, तेमज पुण्य ते
पाप पण नथी. दयादिना शुभभाव ते पुण्यतत्त्व छे, ने हिंसादिना अशुभभाव ते पापतत्त्व छे.
थाय. जो पुण्य–पापना भाव छूटीने स्वरूपमां निर्विकल्पपणे एकाग्र रहे तो तो अल्पकाळमां केवळज्ञान थई
जाय. पण नीचली दशामां तेवी विशेष एकाग्रता रही शके नहि एटले त्यां भक्ति, दान वगेरेना शुभपरिणाम
पण थाय छे, ते पुण्य छे.