अहीं पू. गुरुदेवे समजाव्युं छे; आत्मामां पोतामां ज भगवान
थवानी ताकात छे––एवुं आत्मानुं भगवानपणुं स्वीकार्या
विना कदी साची अहिंसा के धर्म होतो नथी.
स्वर्गमां गयो, पण वास्तविक धर्म शुं छे? आत्मानी अहिंसा शुं छे? ते वात पूर्वे एक सेकंड पण समज्यो
नथी. अहिंसा कोने कहेवी? हुं परने न मारुं एवो शुभभाव छे, ते शुभभाव तो जीव अनंतवार करी
चूक्यो छे, ते कांई खरी अहिंसा नथी; रागथी आत्माने लाभ मान्यो तेमां ज आत्मानी हिंसा छे.
सर्वज्ञदेवे कहेली अहिंसानुं रहस्य तो ए छे के ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी रागरहित श्रद्धा करवी, तेनुं ज्ञान
करवुं ने तेमां एकाग्रता करवी. आवा सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनुं नाम साची अहिंसा छे, ने ते ज धर्म
छे. आवी अहिंसा जीवे कदी एक क्षण पण करी नथी.
चैतन्यमां जीवनशक्ति पडी छे... सर्वज्ञतानी शक्ति तारामां पडी छे... आनंदना निधान तारी शक्तिमां
भर्यां छे, तेनी सन्मुख थईने एकवार तेनी प्रतीत कर, तो अपूर्व अतीन्द्रिय शांतिनो अंश प्रगटे. कोई
बहारनी क्रियाना कारणे, के अंदरना शुभपरिणाम थया तेना अवलंबने अपूर्वशांति प्रगटे एम बनतुं
नथी. तारा ज्ञानने अंतर्मुख करीने स्वभावने जाणतां ते अपूर्वशांति प्रगटे छे, पुण्यभाव होय तेने ज्ञान
जाणे, पण त्यां ते पुण्यना कारणे ज्ञान थयुं एम नथी, अने ज्ञानने कारणे पुण्य परिणाम थया एम पण
नथी. ज्ञाननो स्वभाव स्व–परने जाणवानो छे, ते ज्ञान पुण्यथी जुदुं छे. भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणीमां
एम आव्युं के अरे आत्मा! पूर्वना अनंतकाळमां तने तारा आत्मानुं सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान एक
सेकंड पण थयुं नथी, जो एक सेकंड पण सम्यग्दर्शन करे तो आ संसार परिभ्रमणनो नाश थया विना रहे
नहि. भगवान! तें तारा चैतन्यनी जातने जाण्या विना, धर्मीपणानुं अभिमान कर्युं छे, पुण्य परिणाम
करीने में धर्म कर्यो एम तें मान्युं छे ने जडनी क्रिया माराथी थाय छे एवुं परनुं अभिमान कर्युं छे, पण
जडथी भिन्न ने पुण्य–पापथी भिन्न ज्ञानानंद स्वरूप शुं छे तेने तें कदी ओळख्युं नथी ते चैतन्यतत्त्वनी
ओळखाण वगर सम्यग्दर्शन थाय नहि ने भवभ्रमण मटे नहि. माटे ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणीने
सम्यग्दर्शन केम थाय तेनी रीत आचार्यदेव समजावे छे.