जीवने बचाववानो जे शुभराग थयो, ते रागथी मारो धर्म थतो नथी. हुं परने बचावी शकुं के रागथी
मने लाभ थाय एवी जेनी मान्यता छे ते जीव रागनो आदर करीने आत्माना स्वभावनी हिंसा करे छे,
अनादर कर्यो ते ज अनंती हिंसा छे, ने तेनुं फळ अनंत संसार छे.
मारा ज्ञानानंद स्वरूपना आश्रयमां जेटली वीतरागदशा प्रगटी तेटली अहिंसा छे. मारो आत्मा
अतीन्द्रिय आनंदना स्वादथी भरेलो छे; एक शुभरागनो विकल्प ऊठे ते पण मारा अतीन्द्रिय आनंदने
रोकनार छे. अहो! आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद तो रागथी ने विषयोथी पार छे. ईन्द्रोना वैभवमां पण
ते आनंदनो अंश पण नथी. हुं चैतन्यमूर्ति ज्ञानप्रकाश छुं, अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छुं एवो
अंर्तअनुभव थतां अंदरथी अतीन्द्रिय आनंदनां झरणां प्रगटे एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, ते अहिंसा छे,
ने ते ज धर्म छे. आवो धर्म आत्मामां प्रगट्या पछी देव–गुरु–धर्मना बहुमाननो भाव आवे छे, साचा
देव–गुरु–धर्म प्रत्ये भक्ति अने प्रेमनो ऊछाळो धर्मीने आव्या विना रहेतो नथी. ते भूमिकामां एवो
शुभभाव होय छे, अने ते वखते भगवाननुं जिनमंदिर, वीतराग प्रतिमा, तेनी प्रतिष्ठा, प्रभावना
वगेरे उपर लक्ष जाय छे. नीचली दशामां देव–गुरु–धर्म प्रत्ये भक्ति अने बहुमाननो आवो भाव जेने
नथी आवतो तेने तो हजी धर्मना निमित्तोनो पण विवेक नथी. धर्मात्माने एवो शुभभाव आवे छे ने
तेना निमित्त उपर लक्ष जाय छे, पण तेनी द्रष्टिमांथी रागनुं अवलंबन छूटी गयुं छे. रागना
अवलंबनथी जे लाभ माने छे ते मोटी हिंसा सेवे छे.
आचार्यदेव समजावे छे. ७२ मी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के भगवान आत्मा तो सदाय अति निर्मळ
चैतन्यमात्र स्वभावपणे ज्ञायक छे, तेथी ते अत्यंत शुचि छे––पवित्र छे––उज्जवळ छे. पण घणा
अज्ञानीने आत्मानी आवी वात सांभळता ते गोठती नथी. आत्माने भगवान कह्यो ए वात पण तेने
गोठती नथी. पण भाई! भगवान थया ते बधा क्यांथी थया? आत्मामां भगवान थवानी ताकात हती
तेमांथी भगवानपणुं व्यक्त थयुं. जो आत्मामां ज भगवान थवानी ताकात न होय तो बहारथी आवशे
क्यांथी? माटे आत्मामां भगवान थवानी ताकात छे तेनो विश्वास करो, तेनुं बहुमान करो. जुओ,
एकवार श्रीमद् राजचंद्र जंगलमां जता हता त्यां तेमनी मुद्रा वगेरे जोईने भरवाड जिज्ञासाथी तेनी
सामे जोई ज रह्या. घणी वारे पाछा आव्या त्यारे पण भरवाड जिज्ञासाथी ऊभा हता. तेमनी अनुकरण
भाईओ! तमे आंखो मींची जाओ अने अंदरमां ‘हुं परमेश्वर छुं’ एम तमारा आत्माने चिंतवो. तरत
ज भरवाड आंखो मीची गया अने तेनुं अनुसरण कर्युं. जुओ, ना न पाडी, पण अनुकरण कर्युं, एटले
तेमनी पात्रता हती. आत्माने भगवान कह्यो ते वात सांभळवी पण जेने नथी गमती ते अंतरमां
आत्माना स्वभावनो अनुभव क्यांथी करशे? आचार्यदेव अने संतो कहे छे के अरे जीवो! तमे विकार
जेटला पामर नथी, तमे भगवान छो, तमारा आत्मामां ज भगवान थवानी ताकात भरी छे, तेनी तमे
ओळखाण करो––तेनी द्रष्टि करो. संयोगो पर छे, ते पृथक् छे; पुण्य–पाप विकार छे, ते मारा स्वभावथी
विपरीत छे, अने मारो ज्ञानस्वभाव छे, ते स्वभावमां भगवान थवानुं सामर्थ्य छे; आ रीते (१)
संयोगनी पृथकता, (२) विभावोनी विपरीतता अने (३) स्वभावनी सामर्थ्यता––ए त्रणेने
ज सम्यग्दर्शननुं कारण छे, ए सिवाय रागादि कोई भावो सम्यदर्शननुं कारण नथी. भगवान आत्मा ते
रागनुं कारण नथी, अने राग थाय ते आत्माना धर्मनुं कारण नथी. आ रीते रागादि आस्रवोने अने
भगवान