Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १७२ : आत्मधर्म–१२९ : अषाढ : २०१० :
तारी प्रभुता रागमां के संयोगमां नथी. पद्मनंदी मुनिराज वनजंगलमां वसनारा, हाथमां ज
आहार लेनारा निस्पृह दिगंबर संत हता, तेओ करुणाथी उपदेश आपतां कहे छे के हे जीवो!
संसारना प्रसंगमां दीकरा–दीकरीना लग्नमां करियावरमां, मकान–वस्त्र वगेरेमां लक्ष्मी
वापरवानो भाव आवे छे ते तो पाप भाव छे, तेना करतां धर्मप्रसंगमां भगवाननी प्रतिष्ठा
वगेरेमां लक्ष्मी वापरवानो उल्लास आववो जोईए. जे एम कहे छे के हुं धर्मी छुं–मने धर्मनी
रुचि छे, पण धर्मना प्रसंगमां क्यांय तन–मन–धन वापरवानो उल्लास आवतो नथी, तो
आचार्यदेव कहे छे के तेने धर्मनी रुचि ज नथी, ते तो मायाचारी–दंभी छे. अहीं तो हजी ए
वात समजाववी छे के भाई! बहारना संयोगना कारणे तारो भाव थतो नथी, तेमज जे
शुभभाव थयो तेटलामां पण तारुं कल्याण नथी. अंदरमां चिदानंद स्वभाव परिपूर्ण छे, जेवा
भगवान थया तेवुं ज सामर्थ्य तारा आत्मामां भर्युं छे तेनी प्रीति कर––श्रद्धा कर, तो सिद्ध
भगवान जेवा अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय, तेनुं नाम धर्म छे, ने ते ज कल्याण छे.
अंतरमां चिदानंद स्वरूपनी आवी द्रष्टि प्रगट्या पछी सम्यग्द्रष्टिने बहारमां स्त्रीआदिनो
संयोग पण वर्ततो होय, अमुक पुण्य–पापना भाव पण थता होय छतां अंतरनी द्रष्टिमां ते
बधायथी न्यारो छे. जेम धावमाता बाळकने खेलावे पण “आ दीकरो मारो छे” एवी बुद्धि
तेने नथी, तेम बहारना संयोगमां धर्मी ऊभेला देखाय पण धावमातानी जेम तेने कोई
संयोगमां आत्मबुद्धि रही नथी. संयोगमां क्यांय मारुं सुख छे एम ते मानता नथी. हुं पोते
अतीन्द्रिय सुखनो भंडार छुं, संयोगमां क्यांय मारुं सुख नथी; संयोगना प्रमाणमां राग थाय
एम नथी, अने राग जेटलो मारो आत्मा नथी, संयोगथी ने रागथी पार मारुं चैतन्यतत्त्व छे,
आवी अंतरद्रष्टि धर्मीने एक क्षण पण खसती नथी. अज्ञानीने क्षणिक विकारनी के रागनी ज
महत्ता भासे छे, पण राग वखते अंतरमां चैतन्यनुं अखंड सामर्थ्य पड्युं छे तेनी महत्ता
भासती नथी. धर्मी जाणे छे के मारा चैतन्यस्वभावनी महत्ता छे, हुं ध्रुव सामर्थ्यनो पिंड छुं,
पुण्य–पापनी वृत्तिओ क्षणिक छे तेनी महत्ता नथी आम पोताना चिदानंद स्वभावनो महिमा
एक क्षण पण जीवे लक्षमां लीधो नथी. विकार अने संयोगो होवा छतां, ते वखते अंतरना
स्वभावनी सन्मुख थईने ध्रुव ज्ञानानंद स्वभावनो निश्चय करवो तेनुं नाम धर्म छे. आवो धर्म
करे तेने ते ज क्षणे अंतरमां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो अंश अनुभवमां आवे छे.
समकितीनो पुरुषार्थ
जेणे सम्यग्दर्शन प्रगटाववानो पूर्वे कदी नहि करेलो
एवो अपूर्व सम्यक् पुरुषार्थ करीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं
छे, अने ए रीते संपूर्ण स्वरूपनो साधक थयो छे ते जीव
कोई पण संयोगमां, भयथी, लज्जाथी, लालचथी के कोई
पण कारणथी असत्ने पोषण नहि ज आपे. गमे तेवी
प्रतिकूळता आवी पडे तोपण सत्नी श्रद्धाथी ते च्युत नहि
थाय. ने असत्नो आदर कदी नहि करे. आ रीते
स्वरूपना साधक समकिती निःशंक अने निडर होय छे.
पोताना सत् स्वभावनी श्रद्धाना जोरमां तेने कोई
प्रतिकूळता जगतमां छे ज नहि.