मारुं सुख छे एवुं अंतरलक्ष कर्या वगर पुण्य–पाप अनंतवार कर्या, पण तेमां आत्मानो
आनंद न आव्यो. धर्म करे अने आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद न प्रगटे एम बने नहि आत्मा
सुखने चाहे छे पण ते सुख क्यां छे तेनो ते निर्णय करतो नथी. सुख पोतानो स्वभाव छे तेने
भूलीने बहारमां सुख माने छे. जेम कस्तूरी मृगनी डूंटीमां सुगंध भरी छे पण तेने पोतानो
विश्वास नथी तेथी बहारमां दोडे छे; तेम भगवान आत्मा पोते अतीन्द्रिय आनंद स्वभावथी
भरेलो छे, पण तेने भूलीने बहारमां सुख छे एम माने छे तेथी बहारमां भटके छे. धर्म कहो
के अतीन्द्रिय आनंद कहो. धर्म एटले चैतन्यमूर्ति आत्मानी प्रतीत करीने तेमां एकाग्रता करतां
अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे. ए सिवाय क्यांय संयोगमां के पुण्य–पापमां आत्मानो
आनंद नथी. धर्मना जिज्ञासुने साचा देव–गुरु–धर्मनी भक्ति अने बहुमाननो शुभभाव आवे,
पण मारुं सुख अने धर्म तो आत्माना स्वभावना अवलंबने छे एवी द्रष्टिनी शूरता ते चूके
नहि. धर्मात्माने धर्मनी प्रभावनानो भाव आव्या विना रहे नहि, पण ते भाव परने कारणे
थयो नथी. जेम लौकिक प्रसंगमां लक्ष्मी वगेरे वापरवानो भाव आवे छे तेम धर्मनी
प्रभावनाना प्रसंगमां लक्ष्मी वगेरे वापरवानो भाव जेने नथी आवतो अने तेमां आळस करे
छे, ने धर्मीपणानुं नाम धरावे छे तो ते खरेखर धर्मी नथी पण मायाचारी छे. हजार वर्ष
पहेलांं पद्मनंदी मुनिराज दिगंबर संत थया, तेओ आत्माना आनंदकुंडमां झूलता हता, तेओ
पद्मनंदीपंचविंशतिना दानअधिकारमां कहे छे के––
सत्यात्मनो बदति धार्मिकताञ्च यत्तत्।
माया हृदि स्फुरति सा मनुजस्य तस्य
या जायते तडिदमुत्र सुखाचलेषु।।३१।।
उसका वह कपट दूसरे भव में उसके समस्त सुखों का नाश करनेवाला है।”