Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २०१० : आत्मधर्म–१२९ : १७१ :
* आत्मानो
अतीन्द्रिय आनंद *
जे जीव धर्मी–नाम धरावे छे पण धर्मप्रसंगमां जेने उल्लास
नथी आवतो, ते जीव धर्मी नथी पण मायाचारी छे.
* वीर सं. २४८०, वैशाख वद सातमना रोज बोटाद शहेरमां
भगवाननी वेदी–प्रतिष्ठाना उत्सव प्रसंगे पू. गुरुदेवनुं प्रवचन. *
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे, तेनो निर्णय करवो ते आनंददायक छे. आत्माना
शांतस्वरूपना निर्णय विना अनंतकाळ संसारभ्रमणमां वीती गयो. ज्ञानानंदस्वरूप आत्मामां
मारुं सुख छे एवुं अंतरलक्ष कर्या वगर पुण्य–पाप अनंतवार कर्या, पण तेमां आत्मानो
आनंद न आव्यो. धर्म करे अने आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद न प्रगटे एम बने नहि आत्मा
सुखने चाहे छे पण ते सुख क्यां छे तेनो ते निर्णय करतो नथी. सुख पोतानो स्वभाव छे तेने
भूलीने बहारमां सुख माने छे. जेम कस्तूरी मृगनी डूंटीमां सुगंध भरी छे पण तेने पोतानो
विश्वास नथी तेथी बहारमां दोडे छे; तेम भगवान आत्मा पोते अतीन्द्रिय आनंद स्वभावथी
भरेलो छे, पण तेने भूलीने बहारमां सुख छे एम माने छे तेथी बहारमां भटके छे. धर्म कहो
के अतीन्द्रिय आनंद कहो. धर्म एटले चैतन्यमूर्ति आत्मानी प्रतीत करीने तेमां एकाग्रता करतां
अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे. ए सिवाय क्यांय संयोगमां के पुण्य–पापमां आत्मानो
आनंद नथी. धर्मना जिज्ञासुने साचा देव–गुरु–धर्मनी भक्ति अने बहुमाननो शुभभाव आवे,
पण मारुं सुख अने धर्म तो आत्माना स्वभावना अवलंबने छे एवी द्रष्टिनी शूरता ते चूके
नहि. धर्मात्माने धर्मनी प्रभावनानो भाव आव्या विना रहे नहि, पण ते भाव परने कारणे
थयो नथी. जेम लौकिक प्रसंगमां लक्ष्मी वगेरे वापरवानो भाव आवे छे तेम धर्मनी
प्रभावनाना प्रसंगमां लक्ष्मी वगेरे वापरवानो भाव जेने नथी आवतो अने तेमां आळस करे
छे, ने धर्मीपणानुं नाम धरावे छे तो ते खरेखर धर्मी नथी पण मायाचारी छे. हजार वर्ष
पहेलांं पद्मनंदी मुनिराज दिगंबर संत थया, तेओ आत्माना आनंदकुंडमां झूलता हता, तेओ
पद्मनंदीपंचविंशतिना दानअधिकारमां कहे छे के––
मन्दायते य इह दानविघौ घनेऽपि
सत्यात्मनो बदति धार्मिकताञ्च यत्तत्।
माया हृदि स्फुरति सा मनुजस्य तस्य
या जायते तडिदमुत्र सुखाचलेषु।।३१।।
“जो मनुष्य घन के होते भी दान देने में आलस करता है तथा अपने को धर्मात्मा
कहता है वह मनुष्य मायाचारी है अर्थात् उस मनुष्य के हृदय में कपट भरा हुआ है तथा
उसका वह कपट दूसरे भव में उसके समस्त सुखों का नाश करनेवाला है।”
धर्म प्रसंगमां धर्मीने उल्लास आव्या विना रहेतो नथी. आवो शुभभाव आवे छतां
धर्मीनी द्रष्टिमां अंतरना चिदानंद स्वभावनुं बहुमान वर्ते छे, रागनुं बहुमान नथी. प्रभु!