Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १७० : आत्मधर्म–१२९ : अषाढ : २०१० :
छे तेनो यथार्थ निर्णय करवो जोईए. एक क्षण पण जेनुं सेवन करवाथी अनंत काळनुं भवभ्रमण टळी
जाय एवा धर्मनुं स्वरूप शुं छे ते कदी समज्यो नथी. धर्मना भान वगर पाप अने पुण्य करीने जीव चारे
गतिमां रझळी रह्यो छे. महापाप करीने नरकमां पण अनंतवार गयो छे ने पुण्य करीने स्वर्गमां पण
अनंतवार गयो छे; आडोडाई करीने ढोर पण अनंतवार थयो ने सरळता करीने मनुष्य अवतार पण
अनंतवार पाम्यो; पण मारो आत्मा शुं चीज छे एनुं भान कदी एक क्षण पण कर्युं नथी. मारो धर्म मारा
आत्माना अवलंबने छे, बहारना अवलंबने मारो धर्म नथी आवुं एकवार पण भान करे तो भवनो
नाश थया विना रहे नहि. काचो चणो वावो तो ऊगे ने खाव तो तूरो लागे, पण ते सेकातां ऊगतो नथी
ने स्वादमां मीठो लागे छे; ते मीठाश क्यांथी आवी? चणाना स्वभामां ज ते मीठाश हती, ते ज प्रगटी छे.
तेम आत्मा अज्ञानभावरूपी कचाशने लीधे चार गतिना जन्म–मरणमां ऊगे छे ने आकुळतारूपी तूरा
स्वादने भोगवे छे; पण अंतरमां ज्ञानानंद स्वरूपी परम सत्यनो स्वीकार करतां जन्म–मरणरूपी झाड
ऊगतुं नथी ने अंतरना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद प्रगटे छे. ते आनंद क्यांथी आव्यो? अंतरना
स्वभावमां पूर्ण आनंदनी ताकात भरी छे ते ज व्यक्त थाय छे. बहारना संयोगमांथी ते आनंद नथी
आव्यो, पण स्वभावमां जे आनंद शक्तिरूपे हतो तेमां एकाग्र थतां ते व्यक्त थयो छे. जेवो सिद्ध
भगवाननो आनंद छे तेवो ज आनंद दरेक आत्मामां शक्तिरूपे भर्यो छे, तेनो अंतरमां विश्वास करीने
तेमां एकाग्रता करतां ते आनंदनो अनुभव थाय छे. आनुं नाम धर्म छे.
अंतरमां आत्मानुं भान करीने अतीन्द्रिय आनंदनो अंशे अनुभव तिर्यंच पण करी शके छे,
सातमी नरकना नारकी पण अंर्तस्वभावनी द्रष्टि करीने अपूर्व सम्यग्दर्शन पामे छे ने अतीन्द्रिय आत्म–
शांतिना अंशनुं वेदन करे छे. कोई संयोगमां आत्मानी शांति नथी, ने पुण्यना परिणाम करे तेमां पण
आत्मानी शांति नथी, शांतिनो समुद्र भगवान आत्मा छे, तेमां डुबकी मारतां शांतिनो अनुभव प्रगटे छे.
बहारमां पैसा मळवा, आबरू मळवी ते तो पूर्वना प्रारब्धथी मळी जाय छे, पण धर्म तो वर्तमान अपूर्व
प्रयत्नथी थाय छे, अंतरमां स्वभावना प्रयत्न वगर धर्म थाय नहि. संयोग आवे के जाय तेमां जीवनुं
वर्तमान डहापण के प्रयत्न काम आवे नहि, जीव राग–द्वेष करे–ईच्छा करे, पण परनुं काम करी शके नहि.
अने संयोगथी पार चिदानंद स्वभावनुं भान पोताना सम्यक् प्रयत्नथी थाय छे. भाई! तारी ईच्छानो
प्रयत्न आ शरीर उपर पण चालतो नथी, तारी ईच्छा प्रमाणे शरीरनी अवस्था रहेती नथी. अने पुण्यनी
के पापनी लागणी थाय ते क्षणिक छे, ते क्षणे क्षणे नवी नवी थाय छे ने नाश पामी जाय छे, आत्माना
स्वरूप साथे ते कायम रहेती नथी; तेनुं ज्ञान रहे छे पण ते लागणीओ रहेती नथी. माटे ते पुण्य–पापनी
लागणी रहित ज्ञान स्वरूप छे तेनी ओळखाण करवी जोईए. अहो! सम्यग्दर्शन तरफनी दिशा शुं छे तेनी
पण जगतने खबर नथी अने बहारना उपायो माने छे. भाई! तारा आत्मामां पूर्ण ज्ञान अने आनंदनी
ताकात पडी छे, तारी प्रभुता तारामां भरी छे तेनुं लक्ष करीने प्रतीत करतां आत्मामांथी अतीन्द्रिय
आनंदनो ओडकार आवे एनुं नाम धर्म छे. आवा आत्मानी अंर्तद्रष्टि वगर बहारथी धर्म मानीने
शुक्ललेश्याना शुभ परिणाम पण ते अनंतवार कर्या, पण लेशमात्र धर्म न थयो. आत्मज्ञान वगर
द्रव्यसंयम लीधा, शुभरागथी पंचमहाव्रत पाळ्‌या, पण आत्माना लक्ष वगर तारा भव अटवीना आरा न
आव्या. गुरुगमे आत्माना बोध वगर स्वच्छंदे बीजा साधन अनंतवार कर्या, पण हजी सुधी जरापण
कल्याण थयुं नहि. केम कल्याण न थयुं? कारण के मूळ साधन बाकी रही गयुं. अंतरमां जे वास्तविक
साधन छे तेने ओळख्या वगर बहारना साधन कर्या पण तेनाथी भवभ्रमणनो अंत न आव्यो. गुरुगमे
पात्र थईने पोताना ज्ञान स्वभावने ओळखी तेमां अंर्तद्रष्टि करतां अपूर्व अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे छे ने
भवभ्रमणनो अंत आवे छे.
[चूडा गाममां परम पूज्य गुरुदेवनुं प्रवचन, वीर सं. २४८०, वैशाख सुद ९]