Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २०१० : आत्मधर्म–१२९ : १६९ :
जिज्ञासुनी विचारणा
अज्ञानभावने लीधे अनादिकाळथी आ आत्मा भवसागरमां रखडी
रह्यो छे. अरे जीव! तुं विचार तो कर के हवे आ संसार परिभ्रमण केम मटे?
अंतरमां जे वास्तविक साधन छे तेने भूलीने बहारनां बीजा साधन कर्या,
पण तेनाथी भवभ्रमणनो अंत न आव्यो. गुरुगमे पात्र थईने पोताना
ज्ञानस्वभावने ओळखी तेमां अंर्तद्रष्टि करतां अपूर्व अतीन्द्रिय आनंद
प्रगटे छे ने भवभ्रमणनो अंत आवे छे.
तत्त्वज्ञानतरंगिणीनो पांचमो अध्याय वंचाय छे, तेना अगियारमां श्लोकमां कहे छे के––
शौचसंयमशीलानि दुर्घराणि तपांसि च।
शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानमंतराधृतवाहनम्।।
जेने आत्मानुं हित करवानी जिज्ञासा छे एवो जीव अंतरमां विचारे छे के में मनुष्य अवतार पामीने
शुद्धआत्माना भान वगर पूर्वे अनंतवार शुभभावथी शील अने संयम पाळ्‌या, दुर्धर तप कर्या, –पण तेनाथी
मारा भवनो आरो आव्यो नहि.
जिज्ञासु जीव विचारे छे के अरे, मारो आत्मा अनादिकाळथी आ भवसागरमां रखडी रह्यो छे, अज्ञानने
लीधे भावमरण करी रह्यो छे. श्रीमद् राजचंद्र १६ वर्षनी वये कहे छे के ‘क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो!
राची रहो? ’ आत्मानी ओळखाण विना, बहारमां मारुं सुख छे एवी मिथ्या मान्यताने लीधे जीव क्षणे क्षणे
भावमरणे मरी रह्यो छे, तेमां ज राची रह्यो छे. विचार पण करतो नथी के आ संसार परिभ्रमण हवे केम मटे?
आवुं मनुष्यपणुं मळ्‌युं, सत्समागम मळ्‌यो, तो हवे मारुं भवभ्रमण केम अटके? तेनो विचार तो कर.
‘बहु पुण्य केरा पूंजथी शुभदेह मानवनो मळ्‌यो,
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहीं एके टळ्‌यो.
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो?’
पूर्वना पुण्यथी आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो, तो हवे भवभ्रमण केम मटे तेनो एक क्षण अंतरमां
विचार तो करो.
‘हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्यां,
तो सर्व आत्मिक ज्ञानना सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्यां.
अरे, आ देहनो संयोग तो क्षणिक छे, ते अल्पकाळमां छूटी जशे; देहथी भिन्न मारो आत्मा शुं चीज छे? मारुं
स्वरूप शुं छे? एनुं अंतरमां लक्ष तो करो. आत्मानुं वास्तविक ज्ञानानंद स्वरूप शुं छे. तेनो विचार करीने ओळखाण
करो. आत्मा आ शरीरथी जुदो ज्ञानानंद स्वरूप छे, सर्वज्ञ थवानी ताकात तेनामां भरी छे. जेओ सर्वज्ञ थया तेओ
क्यांथी थया? बहारमांथी सर्वज्ञता आवी नथी पण अंतरमां ज्ञान स्वभावनुं परिपूर्ण सामर्थ्य भर्युं छे तेमां
एकाग्रता करतां सर्वज्ञता प्रगटे छे, अंतरमां शक्ति भरी छे तेमांथी ज प्रगटे छे. शरीर–मन–वाणी वगेरे जड छे, ते
तो हुं नहि, ने अंतरमां शुभ–अशुभ वृत्तिओ ऊठे ते पण मारुं वास्तविक स्वरूप नथी, तेमज वर्तमानमां ज्ञाननो
अल्पविकास छे, ते अल्पज्ञता जेटलो पण हुं नथी, अल्पज्ञता वखते पण मारामां परिपूर्ण ज्ञान सामर्थ्य विद्यमान छे;
आवा पोताना परिपूर्ण ज्ञानानंद स्वभावनी प्रतीत करीने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते अपूर्व धर्म छे.
जुओ, धर्म अपूर्व चीज छे, अनंतकाळमां एक सेकंड पण धर्म कर्यो नथी, तो तेनुं स्वरूप शुं हशे ते
समजवुं जोईए. अज्ञानीओ बाह्य साधनथी आत्मानो धर्म थवानुं मनावे छे, त्यां परीक्षा करीने जाते निर्णय
करवो जोईए. कोई आवीने कहे के “में तारा बापने पचीस हजार रूपिया आप्या हता ते लाव.” तो त्यां नक्की
कर्या वगर एम ने एम मानी लेतो नथी. तो धर्म शुं चीज