Atmadharma magazine - Ank 129
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १६८ : आत्मधर्म–१२९ : अषाढ : २०१० :
भकित–पूजा–प्रभावना वगेरेनो भाव थाय, पण त्यां धर्मी जाणे छे के आ राग ते मारा धर्मनुं साधन नथी.
पहेलां साची श्रद्धा करवी जोईए. धर्म शुं चीज छे तेनुं लक्ष जीवे कदी कर्युं नथी, ने पुण्यने ज धर्म मानीने
संसारमां रखडयो छे. आत्मानुं वास्तविक स्वरूप जे जीव समजे तेने ते समजावनारा देव–गुरु प्रत्ये प्रमोद अने
भकितनो उमंग आव्या विना रहे नहि. पूर्वे शुद्धआत्माने कदी लक्षमां लीधो नथी तेथी खरेखर तेनी वात
सांभळी ज नथी––एम शास्त्रकार कहे छे. पुण्य करीने अनंतवार स्वर्गमां गयो, पण आत्मा अतीन्द्रिय
आनंदनो सागर छे ते पुण्य–पापथी पार छे, तेने एक क्षण पण रुचिमां लीधो नथी. जेम लींडीपीपरना दाणे
दाणे तीखाश भरी छे, ने चणाना दाणे दाणे मीठाश भरी छे, तेम एकेक आत्माना स्वभावमां सर्वज्ञता अने
परिपूर्ण आनंदनुं सामर्थ्य भर्युं छे. आवा आत्मानी एकवार पण प्रतीत करे तो अपूर्व सम्यग्दर्शन थाय. जेम
पर्वत पर वीजळी पडे ने तेना कटका थई जाय पछी ते रेणथी संधाय नहि; तेम आत्मानुं यथार्थ भान करीने
एक सेकंड पण सम्यग्दर्शन प्रगट करे तेने अनंतभवनो नाश थई जाय, ने अल्पकाळमां तेनी मुक्ति थई जाय,
पछी तेने फरीने अवतार रहे नहि, अहो! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे ते वात जीवोने ख्यालमां पण आवी नथी.
सम्यग्दर्शन थयुं त्यां सिद्ध भगवान जेवा अतीन्द्रिय आनंदनुं अंतरमां वेदन थाय छे, आत्मामांथी शांतिना
अपूर्व ओडकार आवे छे. आवा सम्यग्दर्शन वगर शुभभाव करीने पुण्य बांधे, पण धर्म न थाय. पुण्यना
परिणाम थाय तेमां आत्माना गुण दाझे छे. ते पुण्यना फळमां लक्ष्मी वगेरे मळी छे, ते लक्ष्मीने जे जीव पापमां
ज खर्चे छे पण भगवाननी भक्ति–धर्म–प्रभावना वगेरे शुभमां वापरवानो भाव करतो नथी, तेवा जीवने
माटे कागडानो दाखलो आपीने पद्मनंदी पंचविंशतिना दानअधिकारमां समजावे छे के : अरे भाई! कागडाने
बळेली खीचडी मळे त्यां ते पण “को.. को..” करीने बीजा कागडाने भेगा करे छे; तो पूर्वे तारा गुण दाझ्या
त्यारे पुण्य थया, अने ते पुण्यना फळमां तने आ लक्ष्मीनो संयोग मळ्‌यो, तो अत्यारे कांईक दया–दानादिना
कार्यमां न वापर ने एकला पापभाव ज कर, तो कागडा करतांय तुं गयो!! आवो शुभरागनो उपदेश पण
शास्त्रमां आवे; त्यां पापथी छोडाववा माटे ते उपदेश छे पण ते पुण्यभाव करवाथी तने धर्म थई जशे एवो
तेनो आशय नथी. मुक्ति तो आत्माना चिदानंद स्वभावनी प्रतीत अने एकाग्रता करे तो ज थाय. आवा
ज्ञानानंद स्वरूप आत्मानी श्रद्धा अने ओळखाण वगर शुभराग करीने तेने सामायिक ने प्रतिक्रमणरूप धर्म
माने ते भ्रमणा छे. भाई! आत्मानुं ज्ञानानंद स्वरूप रागथी पार छे, तेनुं सम्यक् भान कर्या पछी तेमां
एकाग्रता थतां राग टळी जाय तेनुं नाम सामायिक अने प्रतिक्रमणरूप धर्म छे. हजी अनादिना मिथ्यात्वनुं
प्रतिक्रमण केम थाय तेनी आ वात छे. पहेलांं आत्मानुं सम्यग्ज्ञान करीने मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण करे, तेना विना
धर्मनी शरूआत कदी थती नथी पुण्य अने पापथी पेलेपार कंईक चीज छे ते वात जीवने अनादिथी लक्षमां आवी
नथी. बहारमां शरीरनी क्रिया थाय ते तो जड छे, तेमां तो धर्म नथी, अने अंदर शुभपरिणाम थाय ते पण
धर्मनुं कारण नथी. अंतरमां मारुं ज्ञानानंद स्वरूप देहथी ने पुण्यथी पार छे तेनी सन्मुख थईने सम्यक्प्रतीति
करवी ते प्रथम धर्म छे. आवा धर्मनुं भान होवा छतां सम्यकद्रष्टि धर्मात्माने भगवाननी भक्ति, पूजा, प्रतिष्ठा
वगेरेनो भाव आवे छे. अत्यारे महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधर परमात्मा साक्षात् तीर्थंकरपणे बिराजे छे, त्यां लाखो
केवळी भगवंतो अने संतो बिराजे छे, समकिती जीवो त्यां अनेक छे; ईन्द्रो आवीने समवसरणमां भगवाननी
भक्ति करे छे. ईन्द्र समकिती छे, आत्मानुं भान छे ने एकावतारी छे, पण ज्यां तीर्थंकर भगवाननो जन्म थाय
त्यां हाथमां तेडीने भगवानना दिव्यरूपने भक्तिथी एक हजार नेत्रोथी नीरखे छे, अहो, भगवान थवा माटेनो
आ अवतार छे, आ चरमशरीरी अवतार छे, भगवान आ अवतारमां ज आत्माना पूर्णानंदने साधीने जन्म–
मरणनो नाश करशे, आवो भक्तिभाव ईन्द्रने पण आवे छे ने भक्तिथी भगवान पासे थनगन नाचे छे. पण
ते वखतेय अंतरमां भान छे के आ रागथी पार मारुं चिदानंद स्वरूप छे, तेना ज अवलंबने मारी मुक्ति छे.
सर्वज्ञ भगवान अने साचा गुरु प्रत्ये जेने भक्ति अने बहुमाननो भाव न आवे ते तो स्वच्छंदमां पडेला छे,
अने एवो शुभभाव आवे तेने ज धर्म मानीने रोकाई जाय तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. आत्मानुं ज्ञानानंद स्वरूप
ते रागथी पार छे, ते ज्ञानानंद स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी निर्विकल्प प्रतीति करवी ते अपूर्व धर्म छे; एवी
प्रतीति जीवे पूर्वे अनंतकाळमां एक क्षण पण करी नथी तेथी ते दुर्लभ छे. माटे सत्समागमे यथार्थ श्रवण मनन
करीने, आत्माना शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूपनी अपूर्व ओळखाण अने प्रतीति करवी ते धर्म छे.
[राणपुरमां भगवाननी वेदी–प्रतिष्ठाप्रसंगे पू. गुरुदेवनुं प्रवचन. वीर सं. २४८०, वैशाख सुद १३]
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