लक्षमां आवी नथी. पुण्य–पापथी पार ज्ञानानंद स्वभावनी
सन्मुख थईने तेनी निर्विकल्प प्रतीति पूर्वे अनंतकाळमां एक
क्षण पण जीवे करी नथी तेथी ते दुर्लभ छे.
आत्मानुं वास्तविक चिदानंद स्वरूप शुं छे ते कदी सांभळ्युं पण नथी. तेथी शास्त्रकार कहे छे के––
न तु मुक्तयेऽत्र सुलमा शुद्धात्मज्योतिरूपलब्धिः।।
स्वर्ग केम मळे? एवी बंधकथा जीवोए अनादिथी सांभळी छे, पण मारुं स्वरूप पुण्य–पाप रहित निर्दोष
चिदानंद छे एवी अबंध आत्मानी वात यथार्थ लक्षपूर्वक कदी सांभळी नथी. लक्ष्मी वगेरे मळे त्यां अज्ञानी
एम माने छे के पूर्वे धर्म कर्यो हशे तेनुं आ फळ छे. पण भाई! ए धर्मनुं फळ नथी, लक्ष्मी वगेरे सामग्री मळे
ते तो पूर्वना पुण्यनुं फळ छे, अने धर्म तो जुदी चीज छे. पुण्य अने धर्म ए बंने जुदी चीज छे. ए वात जीवोने
लक्षमां आवती नथी. पुण्यनी रुचि जीवने अनादिथी छे एटले पुण्यनी वात तो अनादिथी सांभळी छे तेथी ते
सुलभ छे, पण पुण्य तो राग छे, ते रागथी पार आत्मानुं परमार्थस्वरूप शुं छे तेनी कदी रुचि जीवे करी नथी,
ने तेनुं श्रवण पण जीवोने दुर्लभ छे. आत्माने जेनाथी बंधन थाय एवी वात जीवे पूर्वे अनंतवार सांभळी छे–
अनुभवी पण छे; परंतु जेना अनुभवथी मुक्ति थाय एवी शुद्धआत्मानी वात जीवे पूर्वे कदी सांभळी नथी–
अनुभवी नथी. पुण्य–पापना भावो थाय तेमां आकुळता छे–दुःख छे, अने ते विनानुं आत्मानुं स्वरूप शुद्ध
सिद्ध समान छे एवा आत्माने लक्षमां लेवो ते अपूर्व छे. समयसारनी चोथी गाथामां जे वात करी छे ते वात
अहीं छठ्ठा श्लोकमां करे छे.
पण अंतरमां देहथी भिन्न ने पुण्य–पापथी पार ज्ञानानंद स्वरूप हुं छुं––एवुं सम्यक्भान करे तो धर्म थाय. शरीर
तो जड छे, आत्मा तेनाथी भिन्न चीज छे. हाथीनुं शरीर घणुं मोटुं छे छतां तेनी बुद्धि ओछी छे, ने मनुष्यनुं शरीर
नानुं होवा छतां बुद्धि वधारे होय छे आवुं देखाय छे. जो शरीर अने आत्मा एक होय तो मोटा शरीरवाळाने
वधारे बुद्धि होवी जोईए, ने नाना शरीरवाळाने ओछी बुद्धि होवी जोईए. पण एवो मेळ देखातो नथी. माटे
भगवान आत्मा देहथी पार ज्ञानानंद स्वरूप छे. अने पुण्य–पाप पण तेनुं वास्तविक स्वरूप नथी. चैतन्यतत्त्व
देह–मन–वाणीथी पार छे, रागथी पण पार छे. आवा चैतन्यतत्त्वनी वार्ता जीवे रुचिपूर्वक सांभळी नथी. पुण्य
अनंतवार कर्यां ने स्वर्गमां पण अनंतवार गयो; पण ज्ञानतत्त्वना लक्ष वगर आत्मानी शांति जरापण मळी नहि.
बहारना संयोगो जीवने सुख के दुःख आपता नथी. संयोगथी पार, सिद्धसमान आत्मा अंतरमां छे तेनी सन्मुख
थईने तेनी प्रतीत कर, तो तने सम्यग्दर्शन थशे अने आत्माना अतीन्द्रिय सुखनो अनुभव थशे आ सिवाय शुभ
राग थाय ते कंई तारा सुखनो उपाय नथी. धर्मीने शुभराग थाय खरो, भगवाननी