Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: २०२: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
सम्यग्दर्शन नथी; ते चैतन्यना स्वसंवेदनज्ञान सिवाय बीजुं कोई सम्यग्ज्ञान नथी; अने ते चैतन्यना ध्यानमां
एकाग्रता सिवाय बीजुं कोई सम्यक्चारित्र नथी; चैतन्य–स्वभावना अवलंबनमां ज आखो मोक्षमार्ग समाय
छे, चैतन्यना अवलंबन सिवाय बीजा कोईना अवलंबनने मोक्षमार्ग नथी. आ रीते मोक्षार्थी जीवने पोतानुं
चैतन्यतत्त्व ज ध्येयरूप छे.
धर्मी कहे छे के : अहो! मारो शुद्ध चिद्रूप आत्मा ज मारुं ध्येय छे, तेथी हुं चिद्रूप आत्माने ज प्रतिसमय
स्मरुं छुं–तेने ज भावुं छुं; मारा शुद्ध चिद्रूप भगवानने हुं कोईपण क्षणे भूलतो नथी, कोईपण समये मारा शुद्ध–
चिंदानंदतत्त्वनी द्रष्टि छूटती नथी. एकवार एक बावो लंगोटी भूली गयो, बीजाए तेने टकोर करी के अरे
महाराज! लंगोटी क्यां भूली गया? त्यारे बावाजीए जवाब आप्यो के :
अरे भया! मैं लंगोट को तो भूल
गया लेकिन मेरे कृष्ण को मैं कहीं भूलता! अंतरनी यथार्थ–द्रष्टि तो जुदी चीज छे, परंतु आ तो बहारनुं
द्रष्टांत छे. तेम अहीं धर्मात्माने पोताना अंतरमां शुद्धचिदानंद स्वभावनी मुख्यतानी द्रष्टि कदी छूटती नथी;
आखा जगतने भूलाय पण अंतरना चैतन्यभगवानने एक क्षण पण केम भूलाय? राग–द्वेष थाय ते
वखतेपण ‘हुं शुद्धचिद्रूप छुं’ एवी अंर्तद्रष्टि धर्मीने कदी छूटती नथी, चैतन्य ध्येयने चूकीने कदी रागादिमां
पोतापणुं मानता नथी. आ रीते शुद्ध चिद्रूप आत्मा ज जगतमां उत्तम अने ध्येयरूप छे.
हवे शुद्ध चिद्रूप आत्मा ज कई रीते उत्तम तत्त्व छे ते कहे छे–
ज्ञेयो द्रश्योऽपि चिद्रूपो ज्ञाताद्रष्टा स्वभावतः।
न तथाऽन्यानि द्रव्याणि तस्मात्द्रव्योत्तमोडस्ति सः।।१०।।
आ चैतन्य स्वरूप आत्मा ज्ञेय तथा द्रश्य छे तेमज ते पोताना स्वभावथी ज्ञाताद्रष्टा पण छे; जगतना
बीजा कोई द्रव्योमां ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव नथी, माटे चैतन्य स्वरूप आत्मा ज उत्तम द्रव्य छे. जगतमां आ शुद्ध
चिद्रूप आत्मा ज एवुं तत्त्व छे के जे पोते ज्ञाता–द्रष्टा छे तेमज पोते ज्ञेय–द्रश्य पण छे, एना सिवाय बीजा कोई
अचेतन पदार्थो ज्ञाता–द्रष्टा नथी; पोताना ज्ञान प्रकाशथी आत्मा ज बधाने प्रकाशे छे–जाणे छे, एना ज्ञान
प्रकाश विना बधे अंधारुं छे. माटे ज्ञानप्रकाशी भगवान आत्मा ज जगतमां उत्तम तत्त्व छे. आम समजीने तेनुं
श्रवण करो–मनन करो ने तेने ज ध्येय बनावो. ज्ञान–स्वरूपी आत्मानी समजण सिवाय बीजा जे कोई उपायो
छे ते बधा निरर्थक छे एम निर्णय करीने तेनी समजणनो प्रयत्न करो.
आ चैतन्यस्वरूपआत्मा पोताना ज्ञानस्वभावथी पोते पोताने पण जाणे छे ने परने पण जाणे छे; त्यां
पोते पोताने तो तन्मय थईने जाणे छे अने परने भिन्नपणे रहीने जाणे छे, तेथी पोते पोतानुं परमार्थ ज्ञेय छे
ने शरीरादि भिन्न पदार्थो ते आत्मानुं व्यवहारेज्ञेय छे. शरीरादि अचेतन पदार्थोमां ज्ञेयपणुं छे पण ज्ञाता पणुं
नथी. ज्ञाता अने ज्ञेय ए बंनेनी एकता तो आत्मामां ज छे, ज्ञाता पण पोते ने पोतानुं ज्ञेय पण पोते एवी
ताकात आत्मा सिवाय बीजा कोईमां नथी; माटे आत्मा ज उत्तम तत्त्व छे. कोई संयोग वडे, राग वडे के पुण्य
वडे आत्मानी उत्तमता नथी पण ज्ञानस्वभाव वडे आत्मानी उत्तमता छे. जेने आत्मानी आवी प्रभुता भासे
तेनुं ज्ञान परथी तेमज रागथी खसीने आत्ममां एकाग्र थया विना रहे नहि, अने आत्मामां एकाग्र थतां
अल्पकाळमां तेनी मुक्ति थई जाय. आ सिवाय आत्माने कर्म रखडावे अने भगवान तारे–एम जे माने तेने
पोतानी स्वतंत्रता तो क्यांय रही नहि, तेने चैतन्यतत्त्वनी उत्तमता भासी नथी. कर्म तो बिचारुं जड छे,
तेनामां एवुं सामर्थ्य नथी के आत्माने रखडावे; कर्म तो आत्माने जाणतुं पण नथी तेमज ते पोते पोताने पण
जाणतुं नथी. आत्मा ज तेने जाणे छे तेमज पोते पोताने पण जाणे छे. परंतु अज्ञानी पोताना आवा ज्ञान
सामर्थ्यनी प्रतीत न करतां, परने तेमज रागने जाणतां ते रूपे ज ज्ञानने मानी ले तेथी ते संसारमां रखडे छे.
आत्मा कर्मने तेमज रागादिने जाणे छे पण तेमां तन्मय थईने तेने नथी जाणतो, तेनाथी भिन्न रहीने तेने जाणे
छे, अने पोते पोताना शुद्ध चिद्रूपतत्त्वने तो तन्मय थईने जाणे छे. आ रीते परथी भिन्न ज्ञान स्वभावनो
निर्णय करीने, तेमां तन्मय थईने शुद्ध चिद्रूप आत्माने ज ज्ञाननुं ज्ञेय बनाववुं ते मोक्षमार्ग छे. भगवान!
आवा तारा महिमावंत तत्त्वनुं तुं श्रवण कर, तेनो आदर कर, अने तेमां तन्मय थईने तेने जाण; ते शुद्ध
चैतन्यतत्त्वना आश्रये ज तारुं कल्याण छे.