आ प्रवचननी शरूआतनो केटलोक भाग ‘आत्मधर्म’ ना अंक १२४ मां आवी गयो छे.
अवतार मळ्यो अने सत्समागम मळ्यो, तो हवे तारो आत्मा शुं तेनी
ओळखाण करीने एवो अपूर्व भाव प्रगट कर के जेथी अनंतकाळना
भवभ्रमणनो नाश थई जाय. भाई! आ शरीरनो संयोग तो क्षणमां छूटीने
राख थई जशे, ते तारी चीज नथी, अने तारुं राख्युं ते रहेवानुं नथी; माटे
देहथी भिन्न तारुं चैतन्यतत्त्व शुं चीज छे तेने ओळख.
जिज्ञासु जीव पोताना आत्मानुं चिंतन करतां विचारे छे के अहो! आ जगतमां आनंदसहित अने उत्तम
परमात्म तत्त्वथी ऊंचुं जगतमां कोई नथी. जगतमां सर्वोत्कृष्ट उत्तम चैतन्यतत्त्व छे, तेनी प्राप्ति अर्थे अहीं
तेने नमस्कार कर्या छे. चैतन्यतत्त्वनी प्राप्ति सिवाय पुण्यपापना भावो जीवे अनंतवार कर्या अने बहारना
संयोगो अनंतवार मळ्या, पण तेमां क्यांय आत्मानो आनंद नथी. आ शरीरथी पार चैतन्यतत्त्व छे ते
अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छे, ते पोते आनंदस्वरूप छे; ए सिवाय क्षणिक हालतमां जे पुण्य–पापनो विकार
देखाय छे ते तेनुं वास्तविकस्वरूप नथी. ‘हुं तो शुद्ध चिद्रूप छुं, आनंद ज मारुं स्वरूप छे’ एम ज्यांसुधी जीव न
समजे त्यांसुधी तेने धर्मनी शरूआत थाय नहि अने बंधन टळे नहि.
श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता ते मोक्षमार्ग छे. जेने पुण्यनी के पुण्यना फळनी रुचि छे तेने आत्माना अबंध स्वभावनी
रुचि नथी एटले के धर्मनी रुचि नथी. जुओ, पूर्वना पुण्यने लीधे कोईक पासे पैसाना ढगला होय त्यां
अज्ञानीने तेनो महिमा आवी जाय छे के ‘भाई! एने तो भगवाने आप्युं एटले ते तो वापरे ज ने! ’ पण
अरे भाई! शुं भगवान कोईने पैसा आपे? जो भगवान आपता होय तो बीजाने आप्या ने तने केम न
आप्या? एक ने आपे ने बीजाने न आपे तो तो भगवान पण पक्षपाती ठर्या? पण एम बनतुं नथी भाई!
बहारनो संयोग तो पूर्वनां पुण्य–पाप अनुसार बने छे. पैसा वगेरे मळे ते पूर्वना पुण्यनुं फळ छे पण तेमां
क्यांय चैतन्यनो आनंद नथी; माटे ते पुण्यनी अने पुण्यना फळनी मीठाश छोड. संयोगनो के पुण्यनो महिमा
नथी पण चैतन्य स्वरूपनो ज महिमा छे; तारा चैतन्य स्वरूपना महिमाने जाणीने तेनी सन्मुख था तो
अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय. कोई संयोगोमां के संयोग तरफना भावमां