Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 21

background image
: १९०: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
आत्मानो आनंद छे ज नहि, अज्ञानीने अनादिथी पुण्यनो ने पुण्यना फळनो महिमा भासे छे परंतु चैतन्य
स्वभावनो महिमा तेने भासतो नथी.
भाई! तारो चैतन्य स्वरूप आत्मा ज ध्रुव छे ते ज तने शरणभूत छे, ए सिवाय बहारनी सामग्रीनो
संयोग तो क्षणिक नाशवंत छे, ते तने शरणभूत नथी, ते तो क्षणमां छूटी जशे. अज्ञानी पोताना चैतन्य
स्वरूपने तो लक्षमां लेतो नथी. अने मफतनो परनी ममता करीने दुःखी थाय छे. जेम एक वडना झाड उपर
एक वांदरो घणा वखतथी रहेतो हतो तेथी तेने एम थई गयुं के आ झाड मारुं छे. पछी ज्यां उनाळो आव्यो
अने झाडनां पांदडां खरवा मांडया त्यां ते वांदरो दुःखी थवा लाग्यो के अरे! मारां पांदडा खरी जाय छे! तेम आ
बहारनो संयोग तो वडनां पान जेवो छे, संयोगथी भिन्न पोताना एकत्व चैतन्य स्वरूपने भूलीने अज्ञानी
जीव अनादिथी संयोगमां ज पोतापणुं मानी रह्यो छे, तेथी संयोगमां कांईक प्रतिकूळता थाय त्यां अज्ञानीने
एम थाय छे के हाय रे! मारी वस्तु चाली जाय छे! पण ज्ञानी कहे छे के भाई! ए वस्तु तारी नथी, तारी वस्तु
तो तारी पासे छे, तुं तो परमानंदमय चैतन्यस्वरूप आत्मा छो; आवा तारा स्वरूपने तुं ओळख. आखा
जगतमां सौथी उत्तम तत्त्व होय तो ते परमानंद स्वरूप तारो आत्मा छे. जेम चणानी मीठाश चणामांथी ज
आवे छे, रेती के तावडामांथी नथी आवती; तेम चैतन्यनो आनंद चैतन्यमांथी ज आवे छे, बहारना कोई
संयोगमांथी के रागमांथी आवतो नथी, चैतन्यशक्तिमां आनंदना निधान पड्या छे तेमांथी ज ते व्यक्त थाय
छे.
जेम चणामां मीठाशनी ताकात भरी छे पण कचासने लीधे ते तूरो लागे छे ने वावो तो उगे छे, पण
तेने सेकता कचाश टळीने मीठाश आवे छे ने फरीने ते ऊगतो नथी. तेम चैतन्यमूर्ति आत्माना स्वभावमां ज्ञान
ने आनंद भर्यो छे, पण अज्ञानरूपी कचाशने लीधे तेने पोताना स्वाभाविक आनंदनो स्वाद आवतो नथी ने
पुण्य–पापनी आकुळतानो स्वाद आवे छे, तथा नवा नवा अवतार धारण करीने चार गतिमां रखडे छे. आम
छतां तेनी स्वभावशक्तिनो नाश थयो नथी. पोतानी स्वभावशक्तिनुं भान करीने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र
वडे आत्माने सेकता तेना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे ने पछी फरीने तेने चार गतिमां अवतार थता
नथी.
जीवे अनादिथी बहार जोयुं छे ने परनो विश्वास कर्यो छे, पण अंतरमां जोईने पोताना स्वभाव
सामर्थ्यनो कदी विश्वास कर्यो नथी. चैतन्यमां ज अनाकुळ शांतरसनो स्वाद छे तेने चूकीने अज्ञानी एम माने छे
के बहारनी सामग्रीमां–खावा पीवामां, स्त्री कुटुंबमां, आबरूमां, शरीरमां, लक्ष्मी वगेरेमां मारुं सुख छे. वळी
कोईक एनाथी जराक आगळ चाले तो एम माने छे के पुण्यना शुभ रागमां सुख छे. पण भाई रे! तारुं सुख
तो तारा स्वभावमां होय के बहार होय? बहारमां के रागमां सुख मानीने तें तारा चैतन्यनी मोटी अवगणना
करी, आत्माना शुद्ध स्वभावनो तें अनादर कर्यो ने रागनो आदर कर्यो. आ प्रकारनी ऊंधी मान्यताथी ज्यांसुधी
बहारमां आनंद माने छे त्यांसुधी पोताना अंदरनो अतीन्द्रिय आनंद जीवने अनुभवमां आवतो नथी, एटले
के सम्यग्दर्शन थतुं नथी–आत्मसाक्षात्कार थतो नथी. तेने अहीं समजावे छे के हे भाई! तारो आत्मा पोते
आनंदस्वरूप छे, तेनो तुं विश्वास कर; अने संयोगमां के रागमां आनंदनी कल्पना छोड. आवो दुर्लभ मनुष्य
अवतार मळ्‌यो अने सत्समागम मळ्‌यो, तो हवे तारो आत्मा शुं तेनी ओळखाण करी एवो अपूर्व भाव प्रगट
कर के जेथी अनंतकाळना भवभ्रमणनो नाश थई जाय. भाई! आ शरीरनो संयोग तो क्षणमां छूटीने राख थई
जशे; ते तारी चीज नथी, अने तारुं राख्युं ते रहेवानुं नथी, माटे देहथी भिन्न तारुं चैतन्यतत्त्व शुं चीज छे तेने
ओळख.
अहीं मांगळिकमां शुद्ध चिद्रूप आत्माने ज प्रणमन करीने तेनो महिमा कर्यो छे. अनादिथी परनुं ने
रागनुं बहुमान करीने ते तरफ परिणमन करतो आवे छे तेने बदले चिदानंद स्वभावनुं बहुमान करीने तेनी
सन्मुख परिणमन करवुं ते अपूर्व मंगळ छे. अनादिना भवभ्रमणनो जेने थाक लाग्यो होय अने आत्मानी जेने
लगनी लागी होय एवा मुमुक्षु जीवने आत्मानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप समजाववा माटे अहीं तेनुं वर्णन करे छे. हे
भाई! तारा आत्मानुं रूप तो आनंद अने ज्ञान छे, ए सिवाय शरीरनुं रूप ते तारुं नथी, अने पुण्य–पाप ते
पण तारुं खरुं रूप नथी. तारी चैतन्यतत्त्वनी समजण वगर पूर्वे अज्ञानभावे बीजा बाह्य साधनो अनंतवार
कर्यां अने तेमां धर्म मान्यो, पण तेनांथी तारुं जरापण कल्याण न थयुं.