Atmadharma magazine - Ank 131
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २०१०: आत्मधर्म–१३१ : २१५ :
जे आ वात समजे तेने तो स्वभावद्रष्टि थई जाय एटले पर्यायमां पण तीव्र विकार तो तेने
होय ज नहि. ‘पर्यायनो विकार स्वभावमां नुकसान करतो नथी’ एम कहेनार कोनी सामे
जोईने ते कहे छे? स्वभाव सामे जोईने कहे छे, जेनी द्रष्टि स्वभाव सामे होय तेने विकारनी
भावना होय ज नहि.
अहीं तो कहे छे के हे भाई! पूर्व विकार थई गयो तेथी तुं मूंझा नहि, ते विकारे तारा
आखा आत्मस्वभावने विकारी करी नांख्यो नथी. अरेरे! में घणां पाप कर्यां, हवे मारुं शुं
थशे?’ एम मूंझवण न कर; पाप क्यां कर्यां? मात्र एक समयनी पर्यायमां ते पाप थयां छे.
पण तारा ध्रुव चैतन्य स्वभावमां ते पाप थयां ज नथी; ते एक समयनी पर्यायना संस्कारने
तारो स्वभाव निरर्थक करी नांखे छे, माटे ते स्वभावनी सामे जो. जेनो स्वभाव अल्पकाळमां
मोक्ष जवानो छे तेने पूर्वना अधर्मभावो रोकी शके नहि. जेमांथी परमात्मदशा प्रगटे एवो
स्वभाव आत्मामां त्रिकाळ छे. चिदानंद भगवान एवो ने एवो चैतन्यमूर्ति छे, तेना
स्वभावने नवो बनाववो पडतो नथी. जेम मोरलो स्वभावथी ज रंगबेरंगी चित्रामणवाळो
होय छे, तेने चीतरवो पडतो नथी, तेम आत्मामां परमात्मदशा प्रगटवानो स्वभाव स्वयंसिद्ध
छे, ते कोईथी नवो बनतो नथी, तेमज बीजा कोई संस्कारथी ते स्वभावने अन्यथा करी शकातो
नथी. ते स्वभावना आश्रये सम्यक् पुरुषार्थ करतां पर्यायमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र के
सिद्धपद प्रगटे, पण ते स्वभावमांथी कांई ओछुं थई जतुं नथी; स्वभावनयथी ते एवो ने एवो
त्रिकाळ एकरूप छे.
जुओ, एक जीवने पर्यायमां ओछुं सामर्थ्य व्यक्त थयुं छे त्यारे शक्तिमां तेने घणुं
सामर्थ्य बाकी रह्युं, ने पछी ज्यारे पर्यायमां घणुं वधारे सामर्थ्य व्यक्त थयुं त्यारे शक्तिमां तेने
ओछुं सामर्थ्य बाकी रह्युं एम बनतुं हशे? ना; पर्यायमां अल्प निर्मळता हो के घणी हो, पण
शक्तिरूप स्वभाव तो एवो ने एवो ज परिपूर्ण रहे छे, तेमां कांई हीनाधिकपणुं थतुं नथी. आ
रीते संस्कारने निरर्थक करी नांखे एवो आत्मानो स्वभाव छे. निगोद पर्याय के सिद्धपर्याय,
अज्ञानपर्याय के केवळज्ञान पर्याय, ते दरेक वखते पण ध्रुव स्वभाव एवो ने एवो ज विद्यमान
छे, ते स्वभावनो नाश थई गयो नथी तेमज तेमां जरापण हानि थई नथी. तेथी, ‘अरेरे!
अत्यार सुधी अमे पाप कर्यां, हवे अमारुं शुं थशे?’ एम मूंझवण करवानुं न रह्युं, केमके
स्वभावमां ते संस्कार पेसी गया नथी. ज्यां द्रष्टि फेरवीने स्वभाव उपर द्रष्टि करी त्यां पापना
संस्कार रहेता नथी. एक समयमां पर्याय फेरवीने स्वभावद्रष्टिथी सम्यग्दर्शन थई शके छे.
ध्रुवस्वभावनी मोटी ओथ छे, ते स्वभाव बधा विकारना संस्कारने निरर्थक करी नांखे छे. माटे
हे भाई! तुं तारा आवा ध्रुवस्वभावनी रुचि कर ने तेनुं अवलंबन कर. हुं भगवान
सिद्धपरमात्मा जेवा नित्यानंद अशरीरी शुद्ध चैतन्यमूर्ति सदाय एवो ने एवो छुं, मारो
स्वभाव जराय ओछो थयो नथी आम सहज एकरूप स्वभावने जाणीने तेनुं अवलंबन करे
तेने ज वास्तविकपणे स्वभावनय होय छे.
–अहीं २८ मा आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं.
[२९] अस्वभावनये आत्मानुं वर्णन
हवे अस्वभावनयथी आत्मा केवो छे? ते कहे छे : ‘आत्मद्रव्य अस्वभावनये संस्कारने
सार्थक करनारुं छुं.’ जेम तीरने स्वभावथी अणी होती नथी पण संस्कार करीने लुहार वडे
अणी काढवामां आवी होय छे, तेम अस्वभावनये आत्माने संस्कार उपयोगी छे एटले के तेनी