Atmadharma magazine - Ank 131
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २०१०: आत्मधर्म–१३१ : २१७ :
ते एक समयनी पर्यायनुं पाप बीजा समयनी पर्यायमां पण आवतुं नथी, एटले पहेला समये
पाप कर्युं माटे बीजा समये ते सुधरी न शके एम नथी, बीजी पर्यायमां पोते जेवा संस्कार पाडे
तेवा पडी शके छे; पोतानी समय–समयनी पर्यायनुं घडतर करवामां आत्मा स्वतंत्र छे. संसार
तो एक समय मात्रनो छे पण ऊंधा संस्कारथी तेने मोटुं रूप आपी दीधुं छे, पण जो
अंर्तस्वभाव तरफ वळे तो स्वभावना संस्कार पडे ने संसारना संस्कार टळे. त्रिकाळी द्रव्यमां
संस्कारनी असर नथी पण पर्यायमां पोते जेवा संस्कार पाडे तेवा पडे छे. भव्य स्वभाव
पलटीने अभव्य न थाय, जीव स्वभाव पलटीने अजीव न थाय, पण अज्ञान पलटीने
सम्यग्ज्ञान थाय, संसार पलटीने मोक्ष थाय. आ रीते पर्यायमां संस्कार पडे छे.
पर्यायमां ऊंधा संस्कारने फेरवीने सवळा संस्कार थई शके छे, जूना संस्कार टळीने नवा
संस्कार प्रगटी शके छे; अहीं पर्यायना संस्कारने फेरवी शकाय छे एम कह्युं तेथी एम न
समजवुं के पर्यायना क्रमने फेरवीने अन्यथा थई शके छे. जे क्रमबद्धपर्याय छे तेनो क्रम तो कदी
तूटतो ज नथी. परंतु क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय करनारने ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि थतां
पर्यायमां नवा वीतरागी संस्कार शरू थाय छे, त्यां पण पर्यायनो ते प्रकारनो ज क्रम छे. परंतु
पर्यायमां पहेलांं तेवी निर्मळता न हती ने हवे ज्ञानस्वभावनी द्रष्टिथी निर्मळता प्रगटी ते
अपेक्षाए पर्यायना संस्कार फर्या कहेवाय, पण कांई पर्यायनो क्रम फर्यो नथी.
एक जीव अनादिथी निगोददशामां हतो, अने निगोदमांथी नीकळी मनुष्य थई आठ वर्षे
ते केवळज्ञान पाम्यो; त्यां ते जीवनो द्रव्यस्वभाव तो एवो ने एवो एकरूप छे, पण ते
स्वभावना आश्रये पर्यायमां नवा संस्कार पड्या छे; द्रव्यस्वभाव तो तेनो ते ज छे पण
पर्यायमां संस्कार पलटी गया छे. निगोददशामां तेवा संस्कार न हता ने केवळज्ञान दशामां तेवा
अपूर्व संस्कार पड्या, छतां द्रव्यस्वभाव एवो ने एवो छे.
जेने जेवा संस्कार होय तेने तेवा ज भणकार आवे. जेने स्वभावना सवळा संस्कार
होय तेने भणकार पण स्वभावना आवे; स्वप्नमां पण तेने एवा भणकार जागे के ‘हुं
विमानमां बेसीने सिद्धलोकमां जाउं छुं, मारा असंख्य प्रदेश आ देहथी जुदा पडी गया छे, हुं
अल्पकाळमां भगवान थईश.’ अने स्वभावनी तीव्र विरोधना करीने जेणे घणा ऊंधा संस्कार
पाड्या होय तेने आभास पण एवो थाय के ‘हुं मरीने तिर्यंचमां जईश, हुं वांदरी थईश, मने
कोईक खेंची जाय छे.’ आ रीते जेवा संस्कार पाडे तेवा भणकार जागे. माटे हे भाई! तारी
पर्यायने अंर्तस्वभावमां वाळीने एवा संस्कार पाड के ‘हुं परमात्मा छुं. आ संसारने टाळीने
हुं हवे अल्पकाळमां परमात्मा थवानो छुं; मारी पर्यायमां में स्वभावना संस्कार पाड्या तेथी
हवे ऊंधा संस्कार मारामां रही ज न शके; मारी पर्यायमां मोक्षना संस्कार पाडता हवे संसार
क्यांय रहे ज नहि.’ आ रीते पर्यायने अंर्तस्वभावसन्मुख करीने आत्मामां स्वभावना
संस्कार प्रगट करे तेने विचार अने स्वप्नां पण एवां सारां आवे के हुं संतमुनिओना टोळामां
बेठो छुं, हुं भगवान थयो, मारुं असंख्यप्रदेशी चैतन्यबिंब आ शरीरमांथी छूटुं पडी गयुं.....आ
रीते स्वभावना भानथी पर्यायमां अपूर्व संस्कार प्रगट करी शकाय छे. शुद्धस्वभावने प्रतीतमां
लईने पर्यायमां तेना संस्कार पाडतां जेवो शुद्धस्वभाव छे तेवी ज शुद्ध पर्याय थई जाय छे.
अनंतकाळना ऊंधा संस्कारनी गूलांट