
अरे! एक सेकंडनो य असंख्यमो भाग! एकवार एवो सम्यक् पुरुषार्थ करीने पर्यायमां
शुद्धस्वभावना संस्कार पाडतां अनादिना ऊंधा संस्कार टळे छे ने अल्पकाळमां ज मुक्ति थाय
छे.
जो भाई! तारा आत्मामां अनंता धर्मो एक साथे छे, तारा आत्माना अनंता धर्मनी ऋद्धि
तारामां भरी छे, तेने जाणीने तुं खुशी था..... खुशी था! शुद्ध चैतन्यद्रव्यमां डूबकी मारीने
पर्यायमां प्रमोद कर... आनंदित था...के अहो! मारी संपूर्ण चैतन्यरिद्धिनो दरियो मारामां भर्यो
छे, शांतरसनो सागर मारा आत्मामां ऊछळी रह्यो छे.
नयोमां सप्तभंगी (अस्तित्व–नास्तित्व वगेरे) ना सात नयो छे, नाम–स्थापना–द्रव्य ने
भाव ए चार बोलना चार नयो छे, अने द्रव्य–पर्याय, नित्य–अनित्य ईत्यादि अढार जोडकांना
छत्रीस नयो छे. आ प्रमाणे ४७ नयोथी वर्णन करीने छेवटे आचार्यदेव कहेशे के स्याद्वाद
अनुसार कोईपण नयथी जुओ, के प्रमाणथी जुओ, तोपण अंदरमां अनंतधर्मवाळो पोतानो
आत्मा शुद्धचैतन्यमात्र देखाय छे. माटे आवा शुद्धचैतन्यमात्र आत्मस्वभावने अंर्तद्रष्टिथी
देखवो ते ज बधा नयोनुं तात्पर्य छे. केमके नय जे धर्मने विषय करे छे ते एक धर्म कांई जुदो
रहेतो नथी, ते धर्म तो धर्मी एवा अभेद आत्माना आश्रये ज रहेलो छे एटले अखंड धर्मी
एवो जे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मा, तेने द्रष्टिमां लीधा विना तेना एकेक धर्मनुं ज्ञान पण साचुं
न थाय, एटले के शुद्ध चैतन्य स्वभावनी द्रष्टि वगर एकपण नय साचो होय नहि. माटे
बधाय नयोना वर्णनमां शुद्धस्वभावनी द्रष्टि तो साथे ने साथे राखीने समजवुं.
पर्यायमां जे केवळज्ञान अने मोक्षदशा प्रगटे छे ते द्रव्यस्वभावमां ताकात पडी
छे तेमांथी ज प्रगटे छे. जो द्रव्यना स्वभावमां ताकात न होय तो पर्यायमां
आवे नहि. सिद्ध भगवंतोने अने अरिहंत भगवंतोने जे केवळज्ञान प्रगट्युं छे
करवी होय तेणे द्रव्यना स्वभावनी ताकातनो निर्णय करीने तेनुं ज अवलंबन
लेवुं जोईए. द्रव्यस्वभावनुं अवलंबन करतां तेमां जे ताकात भरी छे ते ताकात
पर्यायमां प्रगटी जाय छे. आ रीते द्रव्यस्वभावना अवलंबन सिवाय बीजो कोई
मोक्षनो उपाय नथी. कोई निमित्तोमां, रागमां के अल्पज्ञतामां केवळज्ञाननी
ताकात भरी नथी, तेथी ते कोईना अवलंबने केवळज्ञान थतुं नथी.