Atmadharma magazine - Ank 131
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २०१०: आत्मधर्म–१३१ : २१९ :
चैतन्यनी
प्रीति अने प्राप्ति
आत्मा चैतन्य स्वरूप छे, तेनी साची ओळखाण के प्रीति जीवे कदी करी नथी. जो चैतन्य स्वरूपने समजे
तो ते समजावनार साचा देव–गुरु प्रत्ये पण प्रीति अने उल्लास आवे. खरेखर समजणना लक्षे सत् निमित्तो
प्रत्ये पण साची प्रीति जीवे कदी करी नथी. जे शरीरादिकने पोतानां माने छे, रागथी धर्म माने छे, कुदेव–कुगुरुनो
आदर करे छे एवा मोही जीवने चिदानंदस्वरूप आत्मानो प्रेम अनादिथी आव्यो नथी तेथी तेने ते
चिदानंदस्वभाव अगम्य छे. अज्ञानीने बहारनो अने रागनो प्रेम छे तेथी बहारथी ने रागथी धर्म मनावनारा
प्रत्ये पण तेने प्रीति छे, पण राग रहित भगवान आत्माना चिदानंदस्वभावनो प्रेम ते कदी करतो नथी, तेमज
ते स्वभाव समजावनारा ज्ञानीने ओळखीने तेना प्रत्ये यथार्थ प्रेम कदी कर्यो नथी, तेथी अज्ञानी मोही जीवने
चैतन्यस्वरूप आत्मा अगम्य छे; चैतन्यस्वरूप आत्माने जाण्या विना ते अनादिकाळथी संसारमां रखडी रह्यो
छे. जेने शुद्धचिद्रूप आत्मानो प्रेम अने ओळखाण नथी, ने ते सिवाय पुण्यनी के पुण्यना फळनी प्रीति छे तथा
ते पुण्यथी धर्म मनावनारा प्रत्ये आदर छे–एवा जीवने संसार परिभ्रमण कदी मटतुं नथी. जेने पोतानो आत्मा
खरेखर वहालो लाग्यो होय ते जीव रागथी हित माने नहि–रागनी प्रीति करे नहि, तेमज रागथी धर्म
मनावनारा कुदेव–कुगुरु प्रत्ये तेने प्रीति आवे नहि. अहो! आत्मा चिदानंदस्वरूप भगवान छे एम बतावनारा
वीतरागी देव–गुरु–शास्त्रनो आदर अने प्रीति कर्या विना, तथा तेनाथी विरुद्ध–रागथी धर्म कहेनारा एवा
कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने साक्षात् आत्मघातना निमित्त जाणीने छोड्या विना, जीवनुं कदी कल्याण थाय नहि.
अहीं कहे छे के निर्मोही जीवने शुद्धचिद्रूप आत्मानी प्राप्ति सुगम छे; अहीं प्रथम दर्शनमोहना नाशरूप
निर्मोहीपणानी वात छे. निर्मोही दशा प्रगट करनारने निमित्त तरीके पण निर्मोही देव–गुरु ज होय; जेने
चैतन्यस्वरूप आत्मानुं भान नथी अने रागने ज स्वभाव माने छे एवा जीवो तो मोही छे, निर्मोहदशा प्रगट
करनारने एवा मोही जीवोनुं सेवन होय नहि. सत्समागमे सत्–असत्नो निर्णय करीने, अंतरमां
शुद्धआत्मस्वरूपनी प्रीति वडे जेणे मोहनो नाश कर्यो एवा जीवने चैतन्यतत्त्वनी शीघ्र प्राप्ति थाय छे. चैतन्यना
भान विना संसार परिभ्रमणमां जेटलो काळ वीत्यो तेटलो काळ संसारनो नाश करीने मोक्षदशा प्रगट करवामां
न लागे, माटे कहे छे के अंतरमां चैतन्यनी प्रीति करतां शीघ्र तेनी प्राप्ति थाय छे. चोथा गुणस्थाने गृहवासमां
रहेला समकिती जीव पण निर्मोही छे, तेणे अंर्तश्रद्धामां शुद्धचैतन्यतत्त्वने प्राप्त करी लीधुं छे. अने द्रव्यलिंगी
दिगंबर जैन साधु थईने पंचमहाव्रत पाळे पण ते महाव्रतना शुभविकल्पने आश्रित मोक्षमार्ग माने तो ते जीव
मोही छे, तेणे चैतन्यतत्त्वने प्राप्त कर्युं नथी पण ते विकल्पमां ज अटक्यो छे.
दुःख टाळीने सुख मेळववा माटे जीव अनंतकाळथी झांवा नांखे छे, पण अंतरना चैतन्यतत्त्वमां सुख छे
तेने चूकीने बहारमां ते सुख शोधे छे, तेथी तेने सुख मळतुं नथी ते संसारमां ज रखडे छे. चैतन्यनुं सुख
बहारमां मानवुं ते मोह छे ने ते मोहथी जीव दुःखी छे. मारुं सुख मारा अंर्तस्वभावमां ज छे, बहारमां मारुं
सुख नथी एम ओळखीने आत्मस्वभावनी प्रीति करे तो एवा निर्मोही समकिती जीवने पोताना आनंद स्वरूप
आत्मानी शीघ्र प्राप्ति थाय छे एटले के आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे.
अज्ञानी जीव पर वस्तुने पोतानी माने छे अने अनादिथी तेने पोतानी करवा मथे छे, परंतु परनो एक
रजकण पण कदी तेनो थयो नथी; पर वस्तु आत्माथी जुदी छे तेने पोतानी करवी अशक्य छे. अंतरमां चैतन्य
स्वरूप आत्मा छे ते पोतानी वस्तु छे, जो तेनी प्रीति करीने अंतरमां तेनी प्राप्तिनो उद्यम करे तो ते शीघ्र प्राप्त
थाय छे–तेनो अनुभव प्रगट थाय छे. शरीर वगेरे पर चीजो आत्माथी जुदी छे, ते आत्माने आधीन नथी पण
शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा ते पोतानी चीज छे, अंतर्मुख थईने ज्यारे तेनो अनुभव करवा मांगे त्यारे थई शके
छे.
(वीर सं. २४८०, महा सुद ९ वडाल गाममां पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी)