Atmadharma magazine - Ank 131
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २०१०: आत्मधर्म–१३१ : २२१ :
आत्मामांथी ज प्रगटी के बहारथी आवी? आत्मामां ज परमात्मदशा प्रगटवानी ताकात
छे, तारा आत्मामां पण तेवी ताकात भरी छे. तेमांज तारी शोभा अने मोटप छे. ज्यां
अंतरमां आवा आत्मस्वभावनुं भान थयुं त्यां धर्मीनी द्रष्टि ने रुचि पलटी जाय छे. जेम
कुंवारी कन्या बापना घरने अने तेनी मूडीने पोतानां कहेती होय, तेना बाप पासे करोडनी
मूडी होय तो ते पण कहे के अमे करोडपति छीए. पण ज्यां तेनुं सगपण कर्युं त्यां तेनी
द्रष्टि पलटी जाय छे के आ बापना घरनी मिल्कत मारी नहि पण ज्यां सगपण कर्युं ते
घरनी मूडी मारी. हजी बापना घरे रहे छे पण ते घरनी मूडीने पोतानी मानती नथी.
जुओ, सगपण कर्युं त्यां एक क्षणमां द्रष्टि पलटी गई. तेम अज्ञानी जीव अनादिथी
पोताना चैतन्य–स्वभावनी मूडीने चूकीने रागने अने संयोगने पोतानी मूडी मानतो हतो,
पण ज्यां सत्समागमे श्रवण करतां अंतरना चिदानंदस्वभाव साथे सगाई करी त्यां एक
क्षणमां तेनी द्रष्टि पलटी जाय छे के हुं तो चैतन्य छुं, मारा ज्ञान–आनंदनी मिल्कत मारामां
ज छे; परमां मारुं सुख नहि ने परथी मारी शोभा नहि, मारुं सुख ने मारी शोभा तो
मारा आत्मामां ज छे. हजी बहारमां संयोगो तेमज राग वर्तता होवा छतां धर्मीने तेमांथी
स्वामीपणुं छूटी गयुं छे, पोताना चिदानंद स्वभाव सिवाय रागनो के संयोगनो स्वामी
धर्मी थतो नथी. कुळ–कुटुंब वगेरे संयोगथी कांई शोभा मनावे तो धर्मी कहे छे के शरीरनां
कुळ के कुटुंब ते अमारां नथी ने तेनाथी अमारी शोभा नथी. अमे तो केवळी भगवानना
कुटुंबी छीए ने सिद्ध भगवानना कुळना छीए, जेवो भगवाननो आत्मा छे तेवो ज
अमारो आत्मा छे. भगवाननी ने अमारी एक ज जात छे. अमे पण अमारा
स्वभावमांथी अमारुं सिद्धपणुं प्रगट करवाना छीए. आत्माना स्वभावनी आवी द्रष्टि
प्रगट करवी ते धर्मनी शरूआत छे.
जुओ, आ मुद्दानी अने समजवा जेवी वात छे, आ मूळ वात समज्या विना बीजा
उपायो करे तेनाथी कल्याण थाय तेम नथी. जेम कोई माणस नामुं मेळववा बेसे तेमां
परचूरण रकमो तो कबूले ने मूळ मोटी रकम आवे ते ऊडाडे, तो ते देणामांथी छूटे नहि;
तेम आ आत्मस्वभावनी समजण करवी ते मूळ वात छे, कोई जीव दया–दान वगेरे
शुभरागनी वात तो करे पण जो आत्मस्वभावनी साची समजण न करे तो ते जन्म–
मरणना फेरामांथी छूटे नहि. पुण्यथी ने संयोगथी लाभ थाय एवी वात तो जीवने
अनादिथी बेठी छे, पण चैतन्यतत्त्व पुण्यथी ने संयोगथी पार छे एवी साची समजण तेणे
पूर्वे कदी करी नथी. तेथी तेनुं भवभ्रमण अटक्युं नहि. अरेरे आत्मा! अनादिकाळथी
चोरासीना अवतारमां परिभ्रमण करतां तारा जन्म–मरणनो हजी आरो न आव्यो, तो
हवे आवा अवसर पामीने विचार तो कर के आत्मानुं परिभ्रमण केम मटे? ने आत्मानी
मुक्ति केम थाय? आ देह तो राखमां मळी जशे. जो सत्समागमे अंतरना चैतन्यरत्नने न
जाण्युं तो चार गतिमां रखडवानो क्यांय आरो नथी. माटे आ वात समजीने आत्मानुं
हित करी लेवा जेवुं छे.