Atmadharma magazine - Ank 131
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: २२२ : आत्मधर्म–१३१ भाद्रपद : २०१० :
भेदविज्ञाननी प्रशंसा
अने तेनो उपाय
[वीर संवत २४८०, पोष वद १३ ना रोज राजकोट शहेरमां पूज्य गुरुदेवनुं प्रवचन]
भेदज्ञानथी ज जीवने संवर थाय छे, माटे ते भेदज्ञान अत्यंत
प्रशंसनीय छे; भेदज्ञान सिवाय अज्ञानी जीव गमे तेटलां व्रतादिक करे
तोपण ते प्रशंसनीय नथी. हुं अखंड ज्ञान आनंदस्वरूप छुं एवी
अंतर्मुखद्रष्टि करवी ते भेदज्ञाननी क्रिया छे; जे जीव एक सेकंड पण
आवुं अपूर्व भेदज्ञान करे तेने अल्पकाळमां मुक्ति थया विना रहे नहि.
आ संवर अधिकार छे. संवर ते धर्म छे अने तेनुं मूळ कारण भेदविज्ञान छे. हुं परथी भिन्न ज्ञानानंद स्वरूप
छुं, क्रोधादिक पण मारा स्वरूपथी भिन्न छे–एवुं यथार्थ भेदज्ञान अनादिकाळमां एक सेकंड पण जीवे कर्युं नथी, अने
क्रोधादिकमां ज पोतापणुं मानीने अनादिथी संसारमां रखडे छे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ने क्रोधादिभावो विकार स्वरूप
छे. ज्ञानस्वरूप आत्मामां क्रोधादिक नथी अने क्रोधादिकमां ज्ञान नथी, आ रीते ते बंनेनुं जुदापणुं ओळखीने,
ज्ञानस्वरूप आत्मामां ज्ञाननी एकता थाय ने क्रोधादिक विकारथी भिन्नता थाय तेनुं नाम भेदज्ञान छे; आत्मामां आवुं
अपूर्व भेदज्ञान प्रगट करवुं ते संवर थवानो उपाय छे; अने ते ज धर्म छे. तथा ते ज मोक्षनुं कारण छे. आ रीते
भेदज्ञान ते ज संवर थवानो उत्कृष्ट उपाय छे तेथी अहीं आचार्यदेव मांगळिक तरीके ते भेदज्ञाननी प्रशंसा करे छे :–
उपयोगमां उपयोग, को उपयोग नहि क्रोधादिमां,
छे क्रोध क्रोध महीं ज, निश्चय क्रोध नहि उपयोगमां. १८१
उपयोग छे नहि अष्टविध कर्मो अने नोकर्ममां,
कर्मो अने नोकर्म कंई पण छे नहि उपयोगमां. १८२
–आवुं अविपरीत ज्ञान ज्यारे उद्भवे छे जीवने
त्यारे न कंई पण भाव ते उपयोगशुद्धात्मा करे. १८३
(समयसार–संवरअधिकार)
चैतन्यतत्त्वनी आ वात जीवोने अनादिथी अजाणी छे तेथी ध्यान राखीने आ समजवा जेवुं छे. पोताना
ज्ञानानंद स्वभावमां अंर्तमुख द्रष्टिथी आत्मा जे निर्मळ दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप उपयोगनी क्रिया करे तेमां
आत्मा छे; पण क्रोधादिकमां आत्मा नथी. अहीं ‘क्रोध’ कहेतां सामान्य क्रोधनी वात नथी पण ‘राग ते हुं’ एवी
विकारमां एकत्वबुद्धिथी चैतन्यनो जे अरुचि भाव ते क्रोध छे, तेमां आत्मा नथी. आत्मा अनादि अनंत
उपयोग–स्वरूप छे, ते पोताना निर्मळ उपयोगमां ज छे पण क्रोधदिमां ते नथी; अने क्रोधादिकमां ते क्रोधादि छे
पण उपयोगमां क्रोधादि नथी. आ रीते ‘उपयोग–स्वरूप आत्मा’ अने ‘क्रोधादिस्वरूप आस्रवो’ ए बंनेनुं
यथार्थ भेदज्ञान थतां जीव पोताना उपयोग स्वरूप आत्मामां ज एकता करीने पोताना शुद्ध उपयोग भावने ज
करे छे, परंतु शुद्ध उपयोग सिवाय क्रोधादि भावोने पोतामां जरापण करतो नथी, तेथी तेने ते क्रोधादिकनो संवर
थाय छे. आ रीते भेदज्ञानथी ज जीवने संवर थाय छे माटे ते भेदज्ञान अत्यंत प्रशंसनीय छे. आवा भेदज्ञान
सिवाय अज्ञानी जीव गमे तेटलां व्रतादिक करे तोपण ते प्रशंसनीय नथी.
पहेलांं तो सत्समागमे आ वात लक्षमां लेवी जोईए, पछी अंतरना अभ्यास वडे प्रयत्न करतां तेनुं वेदन
थाय. हजी सत्समागमे साचो निर्णय पण जे न करे तेने अनुभव तो क्यांथी थाय? सत्समागमे ज्ञान अने क्रोधना
भेदनो बराबर निर्णय करीने, ‘हुं ज्ञाता–द्रष्टा शुद्ध उपयोगमय छुं’ एम स्वभाव सन्मुख वलणथी रागनो अभाव
करीने जे निर्मळ पर्याय प्रगटे तेना आधारे आत्मा छे, पण रागना आधारे आत्मा नथी. निर्मळ