Atmadharma magazine - Ank 131
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 20 of 21

background image
: भाद्रपद : २०१०: आत्मधर्म–१३१ : २२३ :
पर्याय प्रगटी तेनी साथे आत्मानुं अभेदपणुं छे पण क्रोधादि साथे आत्माने अभेदपणुं नथी. स्वभाव सन्मुख
थईने जे वीतरागी ज्ञानदशा प्रगटी तेने आत्मा साथे अभिन्नपणुं छे ने क्रोधादिथी भिन्नपणुं छे; ज्ञानने
अंर्तस्वभावमां वाळीने एकाग्र करतां जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागी क्रिया थाय तेमां आत्मा छे, अने
क्रोधादिकनो ते क्रियामां अभाव छे. आवुं भेदज्ञान करवुं ते अविपरीतज्ञान छे एटले के सम्यग्ज्ञान छे. आ सिवाय
रागादिभावोथी लाभ थवानुं माने के रागने कारणे ज्ञान माने तो तेने ज्ञान ए क्रोधादिनुं भेदज्ञान नथी पण
विपरीतज्ञान छे एटले के मिथ्याज्ञान छे. ते मिथ्याज्ञान संसारनुं कारण छे अने भेदज्ञान ते मुक्तिनुं कारण छे.
जुओ आ वात अपूर्व छे, अज्ञानपणे जीवे व्रत–तप बधुं कर्युं पण भेदज्ञाननी आ वात कदी समज्यो नथी;
आ वात यथार्थपणे संभळावनारा ज्ञानी मळवा पण दुर्लभ छे, अने सम्यग्ज्ञानीना निमित्त वगर आ वात समजाय
तेवी नथी. भेदज्ञाननी लायकातवाळा जीवने पोताना भावमां निमित्त तरीके सत् निमित्तनो ज आदर होय, असत्
निमित्तोने ते आदरे नहि. हजी निमित्तमां पण जेनी भूल छे, निमित्त ज जेनां खोटां छे, कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने
निमित्त तरीके जे आदरे छे तेने तो उपादानमां पण सत्नी पात्रता नथी, कोईकना शब्दो लईने ते भले अध्यात्मनी
वातो करे पण तेने यथार्थ भेदज्ञान होय ज नहि. जेने पोताना उपादानमां भेदज्ञाननी लायकात थई छे तेने निमित्त
तरीके यथार्थ भेदज्ञाननुं स्वरूप बतावनारा साचा देव–गुरु–शास्त्रनो ज आदर होय. आम छतां पण निमित्तना
अवलंबने भेदज्ञान थतुं नथी. साचा देव–गुरु–शास्त्र पण अनंतवार मळ्‌या, परंतु जीवे पोतामां उपादाननी पात्रता
प्रगट न करी तेथी भेदज्ञान न थयुं ने निमित्त–नैमित्तिकनो यथार्थ मेळ न थयो. अहीं तो भेदज्ञाननी सूक्ष्म वात छे.
निमित्तथी तो आत्मा जुदो छे, ने निमित्त तरफनो जे भाव थाय तेनाथी पण चैतन्यस्वरूप आत्मा जुदो छे; निमित्त
के निमित्त तरफनो विकारी भाव, तेमां आत्मा नथी, माटे निमित्तनी रुचि छोडी, निमित्त तरफना रागनी पण रुचि
छोडी, ते वखतनी ज्ञानपर्यायने अंतरमां वाळीने, ‘हुं अखंड ज्ञान–आनंद स्वरूप छुं’ एवी अंतर्मुख द्रष्टि करवी ते
भेद ज्ञाननी क्रिया छे, तेमां आत्मा छे एटले के आवी अंतर्मुद्रष्टिथी आत्मा अनुभवमां आवे छे ने भेदज्ञान थाय छे.
आवुं भेदज्ञान प्रगट करवुं ते संवर ने मुक्तिनो उपाय छे. जे जीव एक सेकंड पण आवुं अपूर्व भेदज्ञान करे तेने
अल्पकाळमां मुक्ति थया विना रहे नहि.
क्रोध अने आत्मानुं भेदज्ञान करीने अंतरना ज्ञान–स्वभाव तरफ वळतां जे स्व–पर प्रकाशक ज्ञानपर्याय
खीली, ते आत्मामां अभेद छे तेथी तेमां आत्मा छे. ‘उपयोगमां उपयोग छे’ एटले चिदानंद स्वभाव तरफ जे
ज्ञानपर्याय वळी तेमां आत्मानी प्रसिद्धि छे; रागमां आत्मानी प्रसिद्धि नथी, ने आत्मानी प्रसिद्धिमां राग नथी.
चैतन्य–स्वभाव ते अत्यंत सूक्ष्म छे ने राग तो अत्यंत स्थूळ परिणाम छे ए रीते ते बंनेनी भिन्नता छे. राग तो
स्थूळ छे ने ते रागमां एकाग्र थयेलुं ज्ञान पण स्थूळ छे; सूक्ष्म तो चिदानंद स्वभाव छे. अने रागथी छूटीने चिदानंद
स्वभावमां वळेलुं ज्ञान पण सूक्ष्म छे. जे ज्ञान अंतरमां वळीने आत्मस्वभाव साथे अभेद थयुं तेने सूक्ष्मज्ञान कहो,
अतीन्द्रिय ज्ञान कहो के भेदज्ञान कहो के संवर कहो, तेमां आत्मा छे. शरीरादि अजीवनी क्रियामां आत्मा नथी एटले
तेना वडे आत्मानी प्रसिद्धि थती नथी, रागनी क्रियामां पण आत्मा नथी एटले तेना वडे आत्मानी प्रसिद्धि थती नथी,
राग तरफ वळेली ज्ञानपर्यायमां पण खरेखर आत्मा नथी एटले ते परलक्षी ज्ञान वडे पण आत्मानी प्रसिद्धि थती
नथी, अंतरना चिदानंद स्वभावमां वळीने अभेद थयेली ज्ञानपर्यायमां आत्मा छे ने ते ज्ञान वडे ज भगवान
आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे; आवा ज्ञान वडे आत्माने जाणवो ते ज भेदज्ञान छे, ते ज संवर अने धर्म छे. आवा अपूर्व
भेदज्ञान वगर ज्ञानमां पर तरफनो जाणपणानो घणो विकास होय तोपण भगवान तेने स्थूळ कहे छे. देहथी–मनथी ने
रागथी पार, सूक्ष्म चैतन्यस्वभाव अंतरमां कोण छे तेनी जेने ओळखाण नथी तेनुं बधुं जाणपणुं स्थूळ छे; जे ज्ञाने
अंतर्मुख थईने परम सूक्ष्म एवा चैतन्यस्वभावने लक्षमां लीधो ते ज ज्ञान सूक्ष्म छे.
‘उपयोग उपयोगमां छे’ ए एक वाक्यमां आचार्यदेवे घणुं रहस्य भरी दीधुं छे, भगवान आत्मा
उपयोग स्वरूप छे तेनामां परनो तो त्रण काळ अभाव छे, ने पर्यायमां एकक्षण पूरतो ज रागादिभाव छे तेनो
पण उपयोग स्वभावमां अत्यंत अभाव छे. उपयोगस्वरूप आत्मा तो पोताना स्व सन्मुख उपयोगमां ज छे.
रागमां के संयोगमां ते नथी. आवा चिदानंद स्वभावने चूकीने जे एम माने छे के मने बहारना संयोगथी के
संयोग तरफना वलणथी लाभ थाय. एने संयोगनी रुचि छे ने चैतन्यस्वभावनी अरुचि छे; जेणे आत्माना
अनंत गुणस्वभावनो अनादर करीने रागनो आदर कर्यो तेने आत्माना स्वभाव उपर अनंतानुंबंधी क्रोध छे,
ने ते ज अनंत संसारनुं मूळीयुं छे. आत्मानो उपयोगस्वभाव रागना अने परना त्यागस्वरूप ज छे, तेने न
मानतां, रागथी मने लाभ थाय ने हुं परने त्यागुं एम जे माने छे
(अनुसंधान पाना नं. २०६ उपर)