ने पुण्य बांधीने स्वर्गे जाय, पण तेनाथी भवभ्रमणना दुःखनो अंत न आवे. आ तो
अनादिकाळना भवभ्रमणना दुःखनो अंत केम आवे ने अपूर्व आत्मसुखनी प्राप्ति केम थाय तेनी
वात छे. अरे जीव! अनंतकाळमां दुर्लभ एवो आ मनुष्य अवतार पाम्यो ने आवो सत्समागम
मळ्यो त्यारे जो आत्मानी दरकार करीने सत् न समज्यो ने आत्मज्ञान न कर्युं, तो आयुष्य पूरुं
थतां मनुष्यअवतार हारी जईश. आवो अवसर पामीने जे जीव सत्समागमे चैतन्यस्वरूपनी
समजणनो उद्यम करतो नथी अने एम कहे छे के ‘हमणां संसारनां काम करी लईए पछी आत्मानी
समजण करशुं.’ तो ते जीव ‘लक्ष्मी चांदलो करवा आवे त्यारे मोढुं धोवा जाय’ एना जेवो मूर्ख छे.
ज्यां लक्ष्मी चांदलो करवा आवी, त्यां मूरखो कहे के हुं मोढुं धोई आवुं. ज्यां ते मोढुं धोवा गयो, त्यां
लक्ष्मी तो चाली गई. तेम आ मनुष्य–अवतार अने सत्समागमे ज्यां सत् समजीने भवनो अंत
करवानुं टाणुं आव्युं–चैतन्यलक्ष्मी प्राप्त करवानो अवसर आव्यो, त्यां मूर्ख अज्ञानी जीव कहे छे के
पहेलांं हुं देशनी ने कुटुंबनी व्यवस्था करी दउं, पहेलांं बीजो व्यवहार करी लउं ने पछी आत्मा
समजाशे. आम मानीने ज्यां ते व्यवहारमां ने बहारमां रोकाय त्यां तो जीवन पूरुं थतां आ अपूर्व
समजणनुं टाणुं ते गुमावी बेसे छे. माटे भाई! आ अवसर प्रमादमां गुमाववा जेवो नथी.
चोरासीना भवचक्रमांथी बहार नीकळवानुं आ टाणुं आव्युं तेमां जे जीव ‘आंधळानी जेम’
आत्मानी बेदरकारी करे छे ते पाछो चोरासीना चकरावामां रखडे छे. आंधळानो दाखलो आ प्रमाणे
छे: एक आंधळो हतो, तेने नगरमां जवुं हतुं. ते नगरने फरतो गढ हतो ने तेमां प्रवेशवानो एक
ज दरवाजो हतो. कोईए करुणा करीने आंधळाने कह्युं के ‘जो भाई! आ नगरीने फरतो जे गढ छे
ते गढने हाथ अडाडी अडाडीने तुं चाल्यो जा, चालतां चालतां ज्यारे बारणुं आवे त्यारे तेमां थईने
नगरमां प्रवेश करजे. पण बारणुं एक ज छे माटे बराबर ध्यान राखजे.” ते प्रमाणे गढने हाथ
अडाडीने आंधळाए चालवा मांड्युं, घणुं फरतां फरतां मांड दरवाजो नजीक आव्यो; पण ज्यां
दरवाजो आव्यो, त्यां ज बराबर आंधळाने पगमां खंजवाळ आवी, ने गढने अडाडेलो हाथ ऊंचो
करीने खंजवाळतो खंजवाळतो ते चाल्यो (–ऊभो न रह्यो पण चाल्यो.) त्यां तो दरवाजो चाल्यो
गयो ने पाछो ते चक्करमां पड्यो तेम–अहीं चैतन्यघनस्वरूप आत्मा ते