Atmadharma magazine - Ank 131
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: २१० : आत्मधर्म–१३१ भाद्रपद : २०१० :
आनंदनुं नगर छे, तेमां पेसवा माटे सम्यग्दर्शन अने साची समजणरूपी दरवाजो छे.
अनादिकाळथी संसारचक्रमां परिभ्रमण करता आंधळा जीवने एटले के अज्ञानी जीवने आ
मनुष्यअवतारमां सत्समागमे साची समजण करीने स्वरूप नगरमां प्रवेशवानुं टाणुं आव्युं
अने ज्ञानीओए आत्मस्वरूपनी साची समजणनो उपदेश आपीने स्वरूपनगरमां पेसवानुं
बारणुं बताव्युं. हवे ज्यां साची समजण करीने स्वरूपनगरमां पेसवानु टाणुं आव्युं त्यां
अज्ञानथी आंधळो प्राणी साची समजण करवाने बदले, शरीरनी खंजवाळमां एटले के
ईन्द्रियविषयोमां ने रागमां ज लुब्ध थईने आ अवसर गुमावी बेसे छे, ने मनुष्यपणुं हारी
जईने पाछो चोरासीना चक्करमां ज रखडे छे. हुं तो ज्ञान छुं, मारो आनंद मारा स्वरूपमां ज
छे –एम साची समजण करीने चैतन्यस्वरूपमां प्रवेश करे तो आनंदनो अनुभव थाय ने आ
भवभ्रमणथी छूटकारो थाय. पण अज्ञानी जीव, आनंदनुं धाम एवा स्वरूप नगरमां प्रवेश
करतो नथी–तेनां श्रद्धा–ज्ञान करतो नथी, ने पुण्यथी मारुं कल्याण थशे अथवा हमणां परनां
कांईक काम करी दउं, शरीरनां काम करी दउं एम मानीने, मिथ्यात्वथी आंधळो थईने आ
अवसर गुमावी दे छे अने चोरासीना चक्करमां ज रखडे छे. चोरासीना चक्करमां फरी अनंत
काळे पण आवो अवसर मळवो मुश्केल छे. माटे ज्ञानी कहे छे के हे भाई! आ अवसर पामीने
हवे तुं सत्समागामे चैतन्यस्वरूपनी समजणनो रस्तो ले. चैतन्य–स्वरूप आत्मानी साची
समजण करवी ते ज अंतरनी आनंदस्वरूप नगरीमां प्रवेशवानो दरवाजो छे ने ते ज आ
भवभ्रमणथी छूटकारानो मार्ग छे, ए सिवाय बीजो कोई मार्ग नथी.
वडाल गाममां पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी.
सं. २०१०, महा सुद ९
पुण्यनी मीठाश
आत्मानो चिदानंद स्वभाव अबंध छे, तेनी हालतमां पुण्य
के पाप थाय ते बंने बंधन छे; पुण्य–पाप बंनेथी रहित आत्माना
चिदानंद स्वभावनी सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता ते मोक्षमार्ग छे.
जेने पुण्यनी के पुण्यना फळनी रुचि छे तेने आत्माना अबंध
स्वभावनी रुचि नथी एटले के धर्मनी रुचि नथी. अज्ञानीने
पुण्यनो अने बहारना ठाठनो महिमा आवी जाय छे. पैसा
वगेरेनो ठाठ ते पूर्वना पुण्यनुं फळ छे, पण तेमां क्यांय चैतन्यनो
आनंद नथी. माटे ते पुण्यनी अने पुण्यना फळनी मीठाश छोड.
संयोगनो के पुण्यनो महिमा नथी पण चैतन्यस्वरूपनो ज महिमा
छे; हे भाई! तारा चैतन्यस्वरूपना महिमाने जाणीने तेनी
सन्मुख था तो आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय.
कोई संयोगोमां के संयोग तरफना भावमां आत्मानो आनंद छे ज
नहि. अज्ञानीने अनादिथी पुण्यनो ने पुण्यना फळनो महिमा
भासे छे परंतु चैतन्य स्वभावनो महिमा तेने भासतो नथी.