हे जीव! पूर्वे कदी तें तारा आत्माने जाणवानी दरकार करी
आव्युं छे; तो हवे अंतरना प्रयत्न वडे आत्मानी एवी अपूर्व
समजण प्रगट कर के जेथी तारा भवभ्रमणनो अंत आवी जाय.
अनंतकाळथी संसारमां रखडी रहेला जीवनुं हित केम थाय तेनी आ वात छे. आत्मानो स्वभाव
अज्ञानी जीव अनादिथी बहारमां पोताना हितनुं साधन मानीने संसारमां रखडे छे. हुं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप
आत्मा छुं, जगतथी हुं जुदो छुं, मारामां जगत नथी ने जगतना पदार्थोमां हुं नथी, मारा माथे जगतना कामनो
कांई पण बोजो नथी, हुं तो अनंतगुणथी भरपूर मारी चैतन्यनगरीनो स्वामी छुं एम अंतरमां निजस्वरूपने
ओळखीने तेनुं शरण लेवुं ते अपूर्व हितनो मार्ग छे.
भवनो अंत आवे. आत्माना यथार्थ ज्ञान विना ज जीवने अत्यार सुधी संसार परिभ्रमण थयुं छे. जीवे बीजुं
बधुं अनंतवार कर्युं छे पण आत्मानुं वास्तविक ज्ञान कदी पण कर्युं नथी; व्रत–तप अने पूजा–भक्तिना
शुभभाव अनंतवार करी चूक्यो छे ने तेना फळथी स्वर्गमां अनंतवार जई आव्यो छे, पण मारुं स्वरूप आ
रागथी ने संयोगथी पार छे एम पोताना चैतन्यस्वरूप तत्त्वने अंतरमां कदी लक्षगत कर्युं नथी. चैतन्यस्वरूप
जेटलो ज हुं छुं, संयोगनो हुं जाणनार छुं पण संयोग ते हुं नथी, रागनो जाणनार हुं छुं पण राग ते हुं नथी,
आ प्रमाणे भिन्न चैतन्यतत्त्वने लक्षमां लेवुं ते अनंतकाळमां कदी नहि करेल एवी अपूर्व धर्मक्रिया छे, ने ते
क्रिया मुक्तिनुं कारण छे.
तारा भवभ्रमणनो अंत आवी जाय.
थई जतो नथी, परंतु हुं तो ज्ञानरूप ज रहुं छुं. शुभ–अशुभ लागणीओ तो पहेली क्षणे नवी उत्पन्न थईने
बीजी क्षणे पलटी जाय छे अने संयोगो पण पलटी जाय छे, ते कोई मारा आत्मा साथे कायम रहेतां नथी माटे
ते कोई मारुं वास्तविक स्वरूप नथी, हुं तो अनादि अनंत एकरूप चिदानंद स्वरूप छुं, मारुं स्वरूप माराथी कदी
जुदुं पडतुं नथी. आ प्रमाणे अंतरमां शुद्ध चिदानंद आत्माना सम्यग्ज्ञानथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे, आ
सिवाय बीजा कोई उपायथी धर्मनी शरूआत थती नथी. माटे पोताना चैतन्यतत्त्वनी रुचि करवी अने तेनुं
यथार्थ ज्ञान करवुं ते अपूर्व हितनो उपाय छे. पोताना शुद्ध चैतन्यतत्त्वनो अनादर करीने