चैतन्यस्वरूपना भान विना तेणे संसार छोडयो ज नथी; पर चीज मारी हती ने में तेने छोडी–
एवी स्व–परनी एकत्वबुद्धिथी मिथ्यात्वभावरूप संसार तो तेने भेगो ने भेगो ज छे. अने
ज्ञानी–समकीती गृहवासमां होय–वेपार धंधो ने कुटुंब वच्चे रह्या होय तोपण अंतरना चिदानंद
स्वभावनी द्रष्टिमां तेमने आखो संसार छूटी गयो छे, हजी अस्थिरताना राग पूरतो अल्प
संसार छे, परंतु ‘हुं तो चिदानंद स्वरूप ज छुं, राग के संयोग ते हुं नथी’–एवी
अंर्तस्वभावनी द्रष्टिना परिणमनमां संसारनुं स्वामीपणुं छूटी गयुं छे. आवी अंर्तद्रष्टि प्रगट
कर्या वगर गमे तेटलो बाह्य त्याग ने रागनी मंदता होय तोपण तेने बिलकुल धर्म थतो नथी ने
संसारनो अंत आवतो नथी. अने आवी अपूर्व अंर्तद्रष्टि प्रगट करतां अल्पकाळमां ज
संसारनो अंत आवीने मोक्षदशा प्रगटे छे.
अंतरमां तेनी रुचिनो प्रयत्न करवो ते तो क्यांथी लावे? अहो? जीवने आवी वातनुं श्रवण पण
क्यारेक महाभाग्ये प्राप्त थाय छे. पहेलां तो अंतरना हकारपूर्वक सत्यनुं श्रवण करीने सत्य–
असत्यनो निर्णय करे पछी तेनुं अंतरपरिणमन थाय. पण हजी जेनुं श्रवण ज ऊंधुं होय अने
निर्णयमां भूल होय तेने सत्यनुं परिणमन तो क्यांथी थाय? जीव अनादिथी बीजा प्रयत्नमां
अटकयो छे पण पोताना स्वभावनी समजणनो यथार्थ प्रयत्न तेणे कदी कर्यो नथी, तेथी तेनी
समजणनी वात कठण लागे छे ने बहारथी कोई धर्म मनावे तो ते वात झट बेसी जाय छे. पण
भाई! पुण्यथी हित थाय एवी ऊंधी वात तो तने अनादिथी बेठेली ज छे, अंतरना
चिदानंदतत्त्वनी समजण विना तारा भवभ्रमणनो आरो आवे तेम नथी. माटे तेनी रुचि करीने
सत्समागमे ते समजवानो प्रयत्न कर तो अंतरनो चैतन्यस्वभाव जरूर समजाय तेवो छे.
जगतनी दरकार छोडीने एकवार आत्मानी दरकार कर, तो आत्मस्वभावनो अनुभव थया
विना रहे नहि. आ विधि सिवाय बीजी कोई विधिथी धर्म थवानो नथी. जेम शीरो वगेरे करवुं
होय तो तेनी विधि जाणीने ते प्रमाणे करे छे, तेम जेणे आत्मानी मुक्ति करवी होय तेणे तेनी
विधि जाणवी जोईए. पहेलां ज्ञानानंद स्वरूप आत्माने ओळखीने तेनी साची श्रद्धा अने ज्ञान
थाय, त्यार पछी ज तेमां लीनता वडे चारित्र थाय, ए सम्यक्–श्रद्धा–ज्ञान ने चारित्र ते मोक्षनुं
कारण छे; तेमां पण पहेलां सम्यक्–श्रद्धा करवी ते तेनुं मूळ छे सम्यक् श्रद्धा वगर कदी धर्मनी
शरूआतनो अंश पण थाय नहि.