Atmadharma magazine - Ank 132
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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आत्मद्रव्यमां अल्पकाळे मुक्ति थवानो स्वकाळ छे ज, केवळी भगवाने पण अल्पकाळमां तेनो
मोक्ष जोयो छे. काळनयथी आत्मानी मुक्ति समय उपर आधार राखे छे–एम कह्युं तेमां
पुरुषार्थनी नबळाई नथी पण स्वभाव द्रष्टिनुं जोर छे; आनो निर्णय करनार जीव द्रव्यस्वभाव
उपर द्रष्टि राखीने बंध–मोक्षनो पण ज्ञाता रही जाय छे, ने अल्पकाळमां तेनी मुक्ति थई जाय
छे, केवळी भगवानना ज्ञानमां तेनी मुक्तिनां प्रमाण नोंधाई गया छे, अने ते आत्माना
स्वभावमां पण तेवो धर्म छे. अहो? आमां मोक्षनो पुरुषार्थ छे पण आकुळता नथी,
ज्ञाताद्रष्टापणानी धीरज छे. उतावळ करे तो तेने ज्ञाताद्रष्टापणुं न रह्युं पण आकुळता थई–
विषमभाव थयो, ते तो मोक्षने रोकनार छे. श्रीमद् राजचंद्र पण कहे छे के–उतावळ तेटली कचाश,
अने कचाश तेटली खटाश. स्वभावद्रष्टिमां धर्मीने उतावळ नथी, अने पुरुषार्थनी कचाश पण
नथी; स्वभावनी द्रष्टिमां ज्ञाताद्रष्टापणे मोक्षनो प्रयत्न तेने चालु ज छे ने अल्पकाळे तेने
मोक्षदशा थई जाय छे.
जुओ, काळनयने आचार्यदेवे गुप्त नथी राख्यो; काळनयना वर्णनमां पण शुद्ध
द्रव्यस्वभावनो आश्रय करवानुं ज तात्पर्य नीकळे छे. अज्ञानीओ समज्या विना पोतानी
स्वच्छंद कल्पनाथी ऊंधा अर्थ करे छे.
धर्मी कहे छे के ‘भव मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो’–पण ते कोनी द्रष्टिए?
धु्रवस्वभावनी द्रष्टिए; स्वभावद्रष्टिमां बंध–मोक्ष उपर धर्मीने समभाव छे, एटले के बंध टाळुं
ने मोक्ष करुं–एम पर्यायनी विषमता उपर तेनी द्रष्टि नथी पण एकरूप चिदानंद स्वभाव उपर
तेनी द्रष्टि छे ते स्वभावनी द्रष्टिमां अल्पकाळे भव टळीने मोक्ष थया विना रहे नहि.
आ विकार मारे नथी जोईतो–एम विकार सामे जोया करे तो ते विषमभाव छे तेने
विकार टळतो नथी. मारे विकार नथी जोईतो–एम जे विकारने टाळवा मांगे छे तेनी द्रष्टि विकार
सामे न होय पण शुद्धस्वभाव उपर तेनी द्रष्टि होय; शुद्धस्वभावमां विकार नथी एटले ते
स्वभावनी द्रष्टिथी विकार टळी जाय छे ने अविकारी मोक्षदशा प्रगटी जाय छे.
आत्मामां मोक्षदशा प्रगटवानो जे काळ छे ते काळे ज ते मोक्षदशा प्रगटे छे–एवो
आत्मद्रव्यनो धर्म छे आम जेणे काळनयथी जाण्युं ते जीवनी द्रष्टि तो शुद्धचैतन्य द्रव्य उपर ज
पडी छे अने ते द्रव्यना आश्रये अल्पकाळमां जरूर तेनी मुक्ति थई जाय छे.
–आ प्रमाणे ३० मा काळनयथी आत्मानुं वर्णन पूरुं थयुं.
* * *
आत्मानी महत्ता
आ जगतमां आत्मा अने जड बधाय पदार्थो अनादिअनंत छे, अने दरेक पदार्थमां क्षणे क्षणे पोतपोतानी
अवस्थानुं रूपांतर थाय छे, ते तेना स्वभावथी ज थाय छे, जडमां पण क्षणे क्षणे हालत पलटाय एवी तेना
स्वभावनी ताकात छे, जीवने लईने तेनुं कार्य थाय–एम बनतुं नथी. परंतु अज्ञानी स्व–परनी भिन्नताने भूलीने
परनां कार्य हुं करुं एवुं अभिमान करे छे. पण भाई! एमां तारी महत्ता नथी, तुं तो ज्ञानस्वभाव छो–ते
स्वभावनी महत्ताने लक्षमां तो ले. परनां कार्योथी तारी महत्ता नथी पण चैतन्यस्वरूपथी तारी महत्ता छे. तारा
चैतन्यस्वरूपनी महत्ताने लक्षमां लीधा वगर पोताने तुच्छ मानीने तुं संसारमां रखडयो. हवे तारा चैतन्यनी
प्रभुताने जाण ने परना कर्तापणानुं अभिमान छोड तो तारा भवभ्रमणनो अंत आवे.
ः २३७ः
आत्मधर्मः १३२