Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
बारणा उपर नंबर लखी राखे छे. जो ते नंबरमां आघुं–पाछुं थाय तो बारी–बारणानो मेळ तूटी जाय छे. तेम
आत्मा ज्ञायकस्वरूप छे ने पदार्थो तेना ज्ञेय छे, ते पदार्थोनी क्रमबद्धपर्यायमां जे पर्यायनुं जे स्थान (–स्वकाळ)
छे ते आघुंपाछुं थतुं नथी. जो एक पण पर्यायना स्थानने (प्रवाहक्रमने) फेरवीने आघुंपाछुं करवा जाय तो कांई
व्यवस्था ज नहि रहे, केम के एक पर्याय फेरवीने बीजे स्थाने मूकी तो बीजा स्थाननी पर्यायने फेरवीने वळी
त्रीजा स्थाने मूकवी पडशे –ए रीते आखुं द्रव्य चूंथाई जशे,–एटले के ते जीवनी द्रष्टिमां द्रव्य खंडखंड थईने
मिथ्यात्व थई जशे, सर्वज्ञता के ज्ञायकपणुं तो सिद्ध ज नहि थाय. ‘हुं ज्ञायक छुं’–ए वातनुं ज्यांसुधी लक्ष न
थाय त्यांसुधी एक पण न्याय साचो समजाय तेम नथी. आत्मा ज्ञायक अने बधा पदार्थो ज्ञेय,–आम ज्ञान अने
ज्ञेय बंने व्यवस्थित छे. जेवा पदार्थो छे तेवुं ज्ञान जाणे छे, ने जेवुं ज्ञान जाणे छे, तेवा ज पदार्थो छे, छतां
कोईने कारणे कोई नथी–आवुं वस्तुस्वरूप छे. आवुं वस्तुस्वरूप जाणीने जे ज्ञाता थयो ते रागनो पण ज्ञाता ज
छे ने ते राग पण तेना ज्ञाननुं ज्ञेय थईने रहे छे. पदार्थोनी व्यवस्थानो ज्ञायक न रहेतां फेरफार करवानुं माने
छे तेने पोताना ज्ञाननो ज विश्वास नथी.
[५४] “पदार्थोनुं परिणमन व्यवस्थित के अव्यवस्थित?”
भाई, तुं ज्ञान छो; ज्ञान शुं करे? वस्तु जेम होय तेम जाणे. तारुं स्वरूप जाणवानुं छे. तुं विचार तो कर
के पदार्थोनुं परिणमन व्यवस्थित होय के अव्यवस्थित? जो व्यवस्थित छे एम कहो तो तेमां क्यांय फेरववानुं
रहेतुं नथी, ज्ञातापणुं ज रहे छे; अने जो अव्यवस्थित कहो तो ज्ञाने जाण्युं शुं? पदार्थोनुं परिणमन
अव्यवस्थित कहेतां ज्ञान ज अव्यवस्थित ठरशे. केम के अव्यवस्थित होय तो केवळीभगवाने जाण्युं शुं? एटले
केवळज्ञान ज सिद्ध नहि थाय अने आत्मानो ज्ञानस्वभाव पण सिद्ध नहि थाय, ज्ञानस्वभावनी ओळखाण
वगर मिथ्यात्व टळे नहि ने धर्मनो अंश पण थाय नहि.
[५५] जीव के अजीव बधानी पर्याय क्रमबद्ध छे, तेने जाणतो ज्ञानी तो ज्ञाताभावपणे ज
क्रमबद्ध ऊपजे छे.
कोई कहे के “जीव क्यारेक क्रमबद्ध परिणामे परिणमे अने क्यारेक अक्रमे पण परिणमे, तेम ज अजीव
पण क्यारेक क्रमबद्ध परिणमे ने क्यारेक जीव तेने अक्रमे पण परिणमावी दे.”–तो एम नथी. भाई! जीव के
अजीव कोईनुं एवुं स्वरूप नथी के अक्रमे परिणमे. केवळज्ञान चोथा गुणस्थाने थई जाय ने सम्यग्दर्शन तेरमा
गुणस्थाने थाय–एम कदी बनतुं नथी, पहेला केवळज्ञान थई जाय ने पछी मुनिदशा ल्ये एम पण कदी बनतुं
नथी, एवो ज वस्तुना परिणमननो स्वभाव छे. धर्मीने स्वभावद्रष्टिमां ज्ञायकभावनो पुरुषार्थ चालु ज छे,
ज्ञानमां धीरज छे, चारित्रमां अल्पराग थाय छे तेने पण जाणे छे, पण तेने मूंझवण नथी, उतावळ नथी, हठ
नथी, ते तो क्रमबद्ध पोताना ज्ञाताभावपणे ऊपजतो थको तेमां तद्रूप छे.
[५६] अजीव पण तेनी क्रमबद्धपर्यायपणे स्वयं ऊपजे छे.
जेम जीव पोतानी क्रमबद्धपर्याये ऊपजे छे, तेम अजीव पण पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे, जीव
तेनो कर्ता नथी. आ शरीर हाले–चाले, भाषा बोलाय, ते बधी अजीवनी क्रमबद्धपर्यायो छे. तेनामां जे समये जे
पर्याय थाय छे ते तेनाथी थाय छे, ते पर्यायपणे ते अजीव पोते ऊपजे छे, जीव तेनुं कारण नथी, ने ते जीवनुं
कार्य नथी. आम अकार्यकारणपणुं जीवमां पण छे, ने अजीवमां पण छे एटले तेमने परस्पर कांईपण
कारणकार्यपणुं नथी; आवुं वस्तुस्वरूप बतावीने अहीं आत्मानो ज्ञायकस्वभाव ओळखाववो छे.
[५७] सर्वे द्रव्योमां ‘अकार्यकारणशक्ति.’
सर्वे द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पादकउत्पाद्यभावनो अभाव छे, एटले के बधाय द्रव्योने पर साथे
अकार्यकारणपणुं छे. आ रीते ‘अकार्यकारणशक्ति’ बधांय द्रव्योमां छे. अज्ञानीओ कहे छे के “अकार्यकरणशक्ति
तो सिद्धमां ज छे ने संसारी जीवोने तो पर साथे कार्य–कारणपणुं छे”–ए वात जूठी छे.
[५८] पुद्गलमां क्रमबद्धपर्याय होवा छतां.......
पुद्गलमां कर्म वगेरेनी अवस्था पण क्रमबद्ध छे;