Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : १७ :
कांई फेरफार करे एम जे माने छे तेने परमां फेरफार करवानी बुद्धि रहे छे, तेथी पर तरफथी खसीने पोताना
ज्ञायकस्वभाव तरफ ते वळतो नथी एटले तेने ज्ञातापणुं थतुं नथी–अकर्तापणुं थतुं नथी, ने कर्ताबुद्धि छूटती
नथी. अहीं ‘दरेक द्रव्य पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे, बीजो तेनो कर्ता नथी’ ए नियम वडे आत्मानुं
अकर्तापणुं समजावीने ते कर्ताबुद्धि छोडावे छे.
[६६] ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि प्रगट कर्या विना, क्रमबद्धपर्यायनी ओथ लईने बचाव करवा
मांगे ते मोटो स्वछंदी छे.
आ क्रमबद्धपर्यायनी ओथ लईने स्वछंदे कोई एम बचाव करे के “अमने क्रोध पण थवानो हतो ते
क्रमबद्ध थई गयो, तेमां अमे शुं करीए?” तो तेने कहे छे के अरे मूढ जीव! आत्मानुं ज्ञायकपणुं हजी तने बेठुं
नथी तो तुं क्रमबद्धपर्यायनी वात क्यांथी लाव्यो? ज्ञायकस्वभावना निर्णयथी ज क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय
थाय छे. तारी द्रष्टि ज्ञायक उपर छे के क्रोध उपर? जो ज्ञायक उपर द्रष्टि होय तो ज्ञायकमां वळी क्रोध थवानुं
क्यांथी आव्युं? तारा ज्ञायकभावनो निर्णय करीने तुं पहेला ज्ञाता था, पछी तने क्रमबद्धपर्यायनी खबर पडशे.
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने तेने ज्ञाननुं ज्ञेय बनाववुं–तेनी आमां मुख्यता छे, रागने ज्ञेय करवानी मुख्यता
नथी. ज्ञायकस्वभावनो निर्णय कर्यो त्यां ज्ञाननी ज अधिकता रहे छे, क्रोधादिनी अधिकता थती ज नथी, एटले
ज्ञाताने अनंतानुबंधी क्रोधादि तो थता ज नथी; अने तेने ज क्रमबद्धपर्याय यथार्थपणे बेठी छे.
क्रोध वखते ज्ञानस्वरूप तो जेने भासतुं नथी, क्रोधनी ज रुचि छे, अने क्रमबद्धपर्यायनी ओथ लईने
बचाव करवा मांगे छे ते तो मोटो स्वछंदी छे. क्रमबद्धपर्यायमां ज्ञायकभावनुं परिणमन न भासतां, क्रोधनुं
परिणमन भासे छे ए ज तेनी ऊंधाई छे. भाई रे! आ मार्ग तो छूटकारानो छे,–के बंधावानो? आमां तो
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने छूटकारानी वात छे; आ वातनो यथार्थ निर्णय थतां ज्ञान छूटुं ने छूटुं रहे छे. जे
छुटकारानो मार्ग छे तेना बहाने जे स्वछंदने पोषे छे ते जीवने छूटकारानो अवसर क्यारे आवशे!!
[६७] अजर....प्याला!
आ तो अजर–अमर प्याला छे; आ प्याला पचाववा मोंघा छे. पात्र थईने जेणे आ प्यालो पीधो ने
पचाव्यो ते अजर–अमर थई जाय छे, एटले के जन्म–मरण रहित एवा सिद्धपदने पामे छे.
[६८] क्रमबद्धपर्यायमां भूमिका अनुसार प्रायश्चितादिनो भाव होय छे.
“लागेला दोषोनुं प्रायश्चित करवानुं वर्णन तो शास्त्रमां घणुं आवे छे, दोष थयो ते पर्याय पण क्रमबद्ध
छे तो पछी तेनुं प्रायश्चितादि शा माटे?”–एम कोईने शंका ऊठे तो तेनुं समाधान ए छे के साधकने ते ते
भूमिकामां प्रायश्चितादिनो तेवो विकल्प होय छे तेनुं त्यां ज्ञान कराव्युं छे. साधकदशा वखते क्रमबद्धपर्यायमां
तेवा प्रकारना भावो आवे छे ते बताव्युं छे. ‘क्रमबद्धपर्यायमां अमारे दोष थवानो हतो ते थई गयो, माटे तेनुं
प्रायश्चित शुं?’–एम कोई कहे तो ते मिथ्याद्रष्टि–स्वछंदी छे; साधकने एवो स्वछंद होतो नथी. साधकदशा तो
परम विवेकवाळी छे. तेने हजी वीतरागता नथी थई तेम स्वछंद पण रह्यो नथी, एटले दोषोना प्रायश्चित
वगेरेनो शुभ–विकल्प आवे–एवी ज ए भूमिका छे.
क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा होवा छतां समकीतिने चोथा गुणस्थाने एवो भाव आवे के हुं चारित्रदशा लउं,
मुनिने एवो भाव आवे के लागेला दोषोनी गुरु पासे जईने सरळपणे आलोचना करुं ने प्रायश्चित लउं–“कर्म
तो खरवाना हशे त्यारे खरशे, माटे आपणे तप करवानी शी जरूर छे?” एवो विकल्प मुनिने न आवे; पण हुं
तप वडे निर्जरा करुं–शुद्धता वधारुं–एवो भाव आवे.–आवुं ज ते ते भूमिकाना क्रमनुं स्वरूप छे. ‘चारित्रदशा
तो क्रमबद्धपर्यायमां ज्यारे आववानी हशे त्यारे आवी जशे’ एम कहीने समकीति कदी स्वछंदी के प्रमादी न
थाय; द्रव्यद्रष्टिना जोरमां तेने पुरुषार्थ चालु ज छे. खरेखर द्रव्यद्रष्टिवाळाने ज क्रमबद्धपर्याय यथार्थ समजाय छे.
क्रम फरे नहि छतां पुरुषार्थनी धारा तूटे नहि, –ए वात ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि विना बनी शकती नथी.
शास्त्रोमां