Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २० : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
(एटले के निश्चय वगर) ते व्यवहारने जाण्यो कोणे? व्यवहार पोते तो आंधळो छे तेने कांई स्व–परनी खबर
नथी. निश्चयनुं अवलंबन करीने स्व–पर प्रकाशक ज्ञाता जाग्यो ते ज, ज्ञायकने जाणतां रागने पण व्यवहार ज्ञेय
तरीके जाणे छे. क्रमबद्धपर्यायना निर्णयमां निश्चय–व्यवहार बंने एक साथे छे; पहेलो व्यवहार ने पछी निश्चय
एम माने, एटले के रागना अवलंबने ज्ञान थवानुं माने, तो ते खरेखर क्रमबद्धपर्यायने समज्यो ज नथी.
[७५] ‘ईष्टोपदेश!’ नी वात;–क्यो उपदेश ईष्ट छे?
द्रव्य पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे–एम कहेतां तेमां समयसमयनी क्षणिक योग्यतानी वात पण
आवी गई.
कोई कहे के–“योग्यतानी वात तो ‘ईष्टोपदेश’मां आवी छे. आमां क्यां आवी छे?” तेनो उत्तर–आ पण
ईष्ट–उपदेशनी ज वात छे. ईष्ट–उपदेश एटले हितकारी उपदेश. जे समजवाथी आत्मानुं हित थाय एवो उपदेश ते
ईष्टोपदेश छे. आ ‘योग्यता’ कहीने समय समयनी पर्यायनी स्वतंत्रता बतावाय छे ते ज उपदेश ईष्ट छे, आ
सिवाय परने लीधे कांई थवानुं बतावे एटले के पराधीनता बतावे ते उपदेश ईष्ट नथी–हितकारी नथी–प्रिय नथी.
समय समयनी क्रमबद्धपर्याय बतावीने आत्माने पोताना ज्ञायकस्वभाव तरफ लई जाय ते उपदेश ईष्ट छे, पण
पर्यायमां फेरफार–आघुंपाछुं थवानुं जणावीने कर्ता–बुद्धिने पोषे ते उपदेश ईष्ट नथी एटले के साचो नथी, हितकारी
नथी. “आत्माने जे हितमार्गमां प्रवर्तावे ते गुरु छे; खरेखर आत्मा पोते ज पोतानी योग्यताथी पोताना आत्माने
हितमार्गमां प्रवर्तावे छे तेथी पोते ज पोतानो गुरु छे, निमित्तरूपे बीजा ज्ञानीगुरु होय पण ते निमित्तने लीधे आ
आत्मामां कांई थाय–एम बनतुं नथी.” जुओ, आ ईष्ट उपदेश! आ प्रमाणे उपदेश होय तो ज ते ईष्ट छे–
हितकारी छे–सत्य छे, आनाथी विरुद्ध उपदेश होय तो ते ईष्ट नथी–हितकारी नथी–सत्य नथी.
[७६] आत्मानुं ज्ञायकपणुं ने पदार्थोना परिणमनमां क्रमबद्धपणुं.
आत्मा ज्ञायक छे, ज्ञाताद्रष्टापणुं तेनुं स्वरूप छे. जेम केवळीभगवान जगतना बधा द्रव्य–गुण–पर्यायना
ज्ञाता छे तेम आ आत्मानो स्वभाव पण ज्ञाता छे. ज्ञाने जाण्युं माटे पदार्थोमां तेवी क्रमबद्धपर्याय थाय छे एम
नथी, तेम ज पदार्थो तेवा छे माटे तेमनुं ज्ञान थयुं एम पण नथी. आत्मानो ज्ञायकस्वभाव ने पदार्थोनो
क्रमबद्ध परिणमन स्वभाव छे. ‘आम केम’ एवो विकल्प ज्ञानमां नथी तेम ज पदार्थोना स्वभावमां पण एवुं
नथी. ‘आम केम’ एवो विकल्प करीने जे पदार्थने फेरववा मागे छे तेणे ज्ञानना स्वभावने जाण्यो नथी.
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करतां साधक जीव ज्ञाता थई जाय छे, ‘आम केम’ एवो मिथ्याबुद्धिनो विकल्प तेने
थतो नथी.
[७७] आवी छे साधकदशा!–एक साथे दस बोल.
ज्ञानने अंतरमां वाळीने ज्ञानस्वभावनो जेणे निर्णय कर्यो ते–
–क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता थयो, (१) –तेना ज्ञानमां सर्वज्ञनी सिद्धि आवी, (२)
–तेने भेदज्ञान ने सम्यग्दर्शन थयुं, (३) –तेने मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ शरू थयो, (४)
–तेने अकर्तापणुं थयुं, (५) –तेणे समस्त जैनशासनने जाण्युं, (६)
–तेणे देव–गुरु–शास्त्रने खरेखर ओळख्या, (७) –तेने निश्चय–व्यवहार बंने एक साथे आव्या, (८)
–तेनी पर्यायमां पांचे समवाय आवी गयां, (९)
–‘
योग्यता ही’नो तेने निर्णय थयो एटले ईष्ट–उपदेशपण तेनामां आवी गयो. (१०)
[७८] आ लोकोत्तर द्रष्टिनी वात छे, आनाथी विपरीत माने ते लौकिकजन छे.
अहो, आ अलौकिक–लोकोत्तर वात छे. एक तरफ ज्ञायकस्वभाव ने सामे क्रमबद्धपर्याय–एनो निर्णय
करवो ते लोकोत्तर छे. हुं ज्ञायक छुं ने पदार्थोनी पर्यायो क्रमबद्ध छे–एम न मानतां, कांई पण फेरफार करवानुं जे
माने छे ते लौकिकजन छे, लोकोत्तर जैनद्रष्टि तेने रहेती नथी. पोताना ज्ञायकस्वभाव सामे नजर राखीने
आत्मा क्रमबद्धज्ञायकभावपणे ज ऊपजे, अने पदार्थोनी क्रमबद्ध थती पर्यायोने जाणे–आवो जे लोकोत्तर
स्वभाव, तेने जे नथी मानतो ते भले संप्रदाय तरीके जैनमां रह्यो होय