Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : २१ :
तोपण भगवान तेने अन्यमति–लौकिकमति–एटले के मिथ्याद्रष्टि कहे छे. आ “लौकिकमति” कहेतां केटलाकने ते
वात कठण लागे छे. पण भाई! समयसारमां आचार्य भगवान पोते कहे छे के–“ये त्वात्मानं कर्तारमेव
पश्यंति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तंते; लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि
करोति, तेषां तु स्वात्मातानि करोतीत्यपसिद्धांतस्य समत्वात्। ततस्तेषामात्मनो नित्य–कर्तृत्वाभ्युपगमात्
लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः।” (गाथा ३२१–३२२ टीका)
–जेओ आत्माने कर्ता ज देखे छे–माने छे, तेओ लोकोत्तर होय तो पण लौकिकताने अतिक्रमता नथी;
कारण के लौकिकजनोना मतमां परमात्मा विष्णु देवनारकादि कार्यो करे छे, अने तेमना (–लोकथी बाह्य थयेला
एवा मुनिओना) मतमां पोतानो आत्मा ते कार्यो करे छे–एम अपसिद्धांतनी (एटले के खोटा सिद्धांतनी)
बंनेने समानता छे. माटे आत्माना नित्य कर्तापणानी तेमनी मान्यताने लीधे, लौकिक जनोनी माफक, लोकोत्तर
पुरुषोनो (मुनिओनो) पण मोक्ष थतो नथी.
तेना भावार्थमां पं. जयचंद्रजी पण लखे छे के
जो आत्माको कर्ता मानते हैं वे मुनि भी हों तो भी लौकिकजन सरीखे ही हैं, क्योंकि लोक
ईश्वर को कर्ता मानते हैं और मुनियोंने भी आत्माको कर्ता मान लिया, इस तरह इन दोनों का मानना
समान हुआ। इस कारण जैसे लौकिकजनों के मोक्ष नहीं है उसी तरह उन मुनियोंके भी मोक्ष नहीं।
जुओ, आमां मूळ सिद्धांत छे. दिगंबर जैन संप्रदायनो द्रव्यलिंगी साधु थईने पण, जो ‘आत्मा परने
करे’ एम माने, तो ते पण लौकिकजनोनी जेम मिथ्याद्रष्टि ज छे. हवे, आत्मा परनो कर्ता छे–एम कदाच सीधी
रीते न कहे, पण–
–निमित्त होय ते प्रमाणे कार्य थाय एम माने, अथवा आपणे निमित्त थईने परनुं कार्य करी दईए–एम माने,
–अथवा रागना–व्यवहारना–अवलंबनथी निश्चय श्रद्धा–ज्ञान थवानुं माने,
–मोक्षमार्गमां पहेलो व्यवहार ने पछी निश्चय एम माने,
–अथवा रागने लीधे ज्ञान थयुं एटले के राग कर्ता ने ज्ञान तेनुं कार्य–एम माने,
तो ते बधा पण खरेखर लौकिकजनो ज छे, केम के तेमने लौकिक द्रष्टि छूटी नथी.–लौकिकद्रष्टि एटले
मिथ्याद्रष्टि.
‘ज्ञायक’ सामे नजर करीने क्रमबद्धपर्यायने जाणनारा समकीति लोकोत्तरद्रष्टिवंत छे, ने एनाथी विरुद्ध
माननारा लौकिकद्रष्टिवंत छे.
[७९] समजवा माटे एकाग्रता.
आ वात सांभळतां जो समजे तो मजा आवे तेवी छे, पण ते समजवा माटे ज्ञानने बीजेथी पाछुं
वाळीने जराक एकाग्र करवुं जोईए. हजी तो जेने श्रवणमां पण एकाग्रता न होय ने श्रवण वखते पण चित्त
बीजे भमतुं होय, ते अंतरमां एकाग्र थईने आ वात समजे क्यारे?
[८०] अंदर नजर करतां बधो निर्णय थाय छे.
प्रश्न:– आप तो घणां पडखां समजावो छो, पण अमारी बुद्धि थोडी, तेमां अमारे केटलुंक समजवुं?
उत्तर:– अरे भाई! जे समजवा मांगे तेने आ बधुं समजाय तेवुं छे. द्रष्टि बहारमां नाखी छे तेने
फेरवीने जराक अंदरमां नजर करतां ज आ बधा पडखां समजाई जाय तेम छे. समजनारो पोते अंदर बेठो छे के
क्यांक बीजे गयो छे? अंदरमां शक्तिपणे आखेआखो ज्ञायकस्वभाव पड्यो छे, तेमां नजर करे एटली वार छे.
‘मारा नैननी आळसे रे.... में हरिने नीरख्या न जरी’ ....... तेम नजर करतां न्याल करी नांखे एवो भगवान
आत्मा अंदर बेठो छे पण नयननी आळसे अज्ञानी तेने निहाळतो नथी. अंर्तमुख नजर करतां आ बधा
पडखांनो निर्णय थई जाय छे.
[८१] ज्ञाता स्व–परने जाणतो थको ऊपजे छे.
ज्ञाताभावनी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजतो धर्मी जीव पोताना ज्ञानस्वभावने पण जाणे छे; स्व–पर
बंनेने जाणतो थको ऊपजे छे, पण स्व–पर बंनेने करतो थको नथी ऊपजतो. कर्ता तो एक स्वनो ज छे, ने
स्वमां पण खरेखर ज्ञायकभावनी क्रमबद्ध पर्यायने ज करे छे, रागनुं कर्तापणुं धर्मीनी द्रष्टिमां नथी.
ज्ञान ऊपजतुं थकुं पोताने तेमज रागने पण जाणतुं ऊपजे छे, परंतु ‘रागने करतुं थकुं’ ऊपजे छे–एम
नथी. ज्ञान ऊपजे छे अने पोते पोताने जाणतुं ऊपजे छे.