Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
थयो–एम पण नथी. तेनी पोतानी योग्यताथी ज तेनामां फेरफार एटले के सूक्ष्मतामांथी स्थूळतारूप परिणमन
थयुं छे. जेम एक छूटा परमाणुमां स्थूळतारूप परिणमन नथी थतुं, तेम स्थूळस्कंधमां पण जो तेनुं स्थूळ
परिणमन न थतुं होय तो आ शरीरादि नोकर्म वगेरे कांई सिद्ध ज नहि थाय. छूटो परमाणु स्थूळ स्कंधमां
भळतां तेनामां स्थूळतारूप परिणमन तो थाय छे पण ते परने लीधे थतुं नथी, तेनी पोतानी योग्यताथी ज
थाय छे.
[८९] क्रमबद्धनो निर्णय करनारने ‘अभाग्य’ होय ज नहि.
‘अभाग्यथी कुदेव, कुगुरु अने कुशास्त्रनुं निमित्त बनी जाय तो ऊलटुं अतत्त्वश्रद्धान पुष्ट थई जाय’–
एम मोक्षमार्गप्रकाशकमां कह्युं छे, परंतु त्यां पण तेवा निमित्तोना सेवननो ऊंधो भाव कोण करे छे? खरेखर
तो पोतानो जे ऊंधो भाव छे ते ज अभाग्य छे. आत्माना ज्ञायकस्वभाव तरफ झूकीने जेणे क्रमबद्धपर्यायनो
निर्णय कर्यो तेने एवुं अभाग्य होय ज नहि एटले के कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनुं सेवन तेने होय ज नहीं.
आत्मा ज्ञायक छे ने वस्तुनी पर्याय क्रमबद्धपणे स्वयं थाय छे–एवा वस्तुस्वरूपने जे नथी जाणतो तेनुं
ज्ञान साचुं थतुं नथी, ने साचा ज्ञान वगर निर्मळपर्याय एटले के शांति के धर्म थतो नथी.
[९०] स्वाधीनद्रष्टिथी जोनार–ज्ञाता.
आईस (बरफ] नांखवाथी पाणीनी ठंडी अवस्था थई–एम नथी; पाणीमां साकर नांखी माटे ते
साकरने लीधे पाणीना परमाणुओमां गळी अवस्था थई–एम नथी; ते ते परमाणुओ स्वाधीनपणे तेवी
अवस्थापणे परिणम्या छे. पोताना आत्माने स्वाधीनद्रष्टिथी ज्ञायकभावे परिणमतो जोनार जगतना बधा
पदार्थोने पण स्वाधीन परिणमता जुए छे; तेथी ते ज्ञाता ज छे, अकर्ता ज छे. आत्मा तो अजीवना कार्यने न
करे, परंतु एक स्कंधमां रहेला अनेक परमाणुओमां पण एक परमाणु बीजा परमाणुनुं कार्य न करे. आवी
स्वतंत्रता छे.
[९१] संस्कारनुं सार्थकपणुं, –छतां पर्यायनुं क्रमबद्धपणुं.
प्रश्न:– प्रवचनसारना ४७ नयोमां तो कह्युं छे के अस्वभावनये आत्मा संस्कारने सार्थक करनारो छे, जेम
लोढाना तीरमां संस्कार पाडीने लूहार नवी अणी काढे छे तेम आत्मानी पर्यायमां नवा संस्कार पडे छे;–आम छे
तो पछी पर्यायना क्रमबद्धपणानो नियम क्यां रह्यो?
उत्तर:– आत्मा पोतानी पर्यायमां जेवा संस्कार पाडे तेवा पडे छे. अनादिथी पर्यायमां मिथ्याश्रद्धा–ज्ञान
हता, तेने बदले हवे ज्ञायकस्वभाव तरफ वळतां ते मिथ्याश्रद्धाज्ञान टळीने, सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानना अपूर्व संस्कार
पड्या, तेथी पर्यायमां नवा संस्कार कह्या. तोपण त्यां क्रमबद्धपर्यायनो नियम तूटयो नथी. शुं सर्वज्ञभगवाने
तेम नहोतुं जोयुं ने थयुं? अथवा शुं क्रमबद्धपर्यायमां तेम नहोतुं ने थयुं?–एम नथी. पोते पोताना
ज्ञायकस्वभाव सन्मुखना पुरुषार्थ वडे निर्मळपर्यायपणे ऊपज्यो त्यां, केवळी भगवाने क्रमबद्धपर्यायमां जे
निर्मळ पर्याय थवानुं जोयुं हतुं ते ज पर्याय आवीने ऊभी रही. आ रीते, ज्ञायकस्वभावनो पुरुषार्थ करनारने
पर्यायमां मिथ्यात्व टळीने सम्यग्दर्शनना अपूर्व नवा संस्कार पड्या वगर रहे नहि, अने क्रमबद्धपर्यायनो क्रम
पण तूटे नहि.–आवो मेळ ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि वगर समजाशे नहि.
[९२] क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता कोण?
जेने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी ने क्रमबद्धपर्यायमां आघुं–पाछुं करवानुं माने छे तेने जीव–अजीव
द्रव्योनी खबर नथी एटले मिथ्याज्ञान छे. जे परनुं कर्तापणुं माने छे तेने तो हजी परथी भिन्नतानुं पण भान
नथी, परथी भिन्नता जाण्या विना, अंतरमां ज्ञान अने रागनी भिन्नता तेना ख्यालमां आवी शकशे नहि.
अहीं तो एवी वात छे के जे पोताना ज्ञानस्वभाव तरफ वळ्‌यो ते क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता छे, रागने पण ते
ज्ञानथी भिन्न ज्ञेय तरीके जाणे छे. आवो ज्ञाता रागादिनो अकर्ता ज छे.