: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : २५ :
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प्रवचन चोथुं
[वीर सं. २४८० भादरवा वद अमास]
क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय पण ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि वडे ज थाय छे, तेथी तेमां जैनशासन आवी
जाय छे. जे अबद्धस्पृष्ट... आत्माने देखे छे ते समस्त जिनशासनने देखे छे–एम पंदरमी गाथामां कह्युं, अने
अहीं–‘जे ज्ञायकद्रष्टिथी क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करे छे ते समस्त जिनशासनने देखे छे’ एम कहेवाय छे,–ते
बंनेनुं तात्पर्य एक ज छे. द्रष्टिने अंतरमां वाळीने ज्यां ज्ञा...य...क उपर मीट मांडी त्यां सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान
साथे चारित्र, आनंद, वीर्य वगेरेनुं पण शुद्ध परिणमन थवा मांड्युं, ए ज जैनशासन छे.
[९३] क्रमबद्धपर्यायना निर्णयमां सात तत्त्वोनी श्रद्धा.
जीव ने अजीव बंनेनी अवस्था ते ते काळे क्रमबद्ध स्वतंत्र थाय छे, तेमने एक बीजा साथे
कार्यकारणपणुं नथी. जीवनो ज्ञायकस्वभाव छे, ते ज्ञायकने जाणवानी मुख्यतापूर्वक क्रमबद्धपर्यायनो जाणनार
छे.–आवी प्रतीतमां साते तत्त्वोनी श्रद्धा पण आवी जाय छे एटले तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन आमां आवी
जाय छे. साते तत्त्वोनी श्रद्धा कई रीते आवे छे ते कहे छे–
(१–२) मारा ज्ञानादि अनंतगुणोना क्रमबद्ध ज्ञाताद्रष्टा परिणामपणे हुं ऊपजुं छुं ने तेमां हुं तन्मय
छुं–आवी स्वसन्मुख प्रतीतिमां जीवतत्त्वनी प्रतीत आवी गई; ज्ञाताद्रष्टापणे ऊपजतो थको हुं जीव छुं,
अजीव नथी, ए रीते अजीवथी भिन्नपणानुं–कर्मना अभाव वगेरेनुं–ज्ञान पण आवी गयुं; एटले
अजीवतत्त्वनी प्रतीत थई गई.
(३–४–५–६) ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी श्रद्धा–ज्ञान निर्मळ थया छे, चारित्रमां पण अंशे शुद्धता
प्रगटी छे, तेम ज हजी साधकदशा होवाथी अमुक रागादि पण थाय छे. त्यां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनुं जेटलुं
निर्मळ परिणमन छे तेटला संवर–निर्जरा छे, तथा जेटला रागादि थाय छे तेटले अंशे आस्रव–बंध छे.
साधकने ते शुद्धता अने अशुद्धता बंनेनुं ज्ञान वर्ते छे, तेथी तेने आस्रव–बंध–संवर–निर्जरा तत्त्वोनी प्रतीत
पण आवी गई.
(७) परनो अकर्ता थईने ज्ञायकस्वभावमां एकाग्र थतां क्रमबद्धपर्यायमां अंशे शुद्धता प्रगटी छे, ने हवे
आ ज क्रमे ज्ञायकस्वभावमां पूर्ण एकाग्र थतां पूर्ण ज्ञाता–द्रष्टापणुं (केवळज्ञान) प्रगटी जशे ने मोक्षदशा थई
जशे,–एवी श्रद्धा होवाथी मोक्षतत्त्वनी प्रतीत पण तेमां आवी गई.
आ रीते, ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थईने क्रमबद्ध–पर्यायनी प्रतीत करतां तेमां ‘तत्त्वार्थश्रद्धानं
सम्यग्दर्शनम्’ पण आवी जाय छे.
[९४] सदोष आहार छोडवानो उपदेश अने क्रमबद्धपर्याय–तेनो मेळ.
प्रश्न:– जो पर्याय क्रमबद्ध ज थाय छे, आहार पण जे आववानो होय ते ज आवे छे, तो पछी–
‘मुनिओए सदोष आहार छोडवो ने निर्दोष आहार लेवो’–एवो उपदेश शा माटे?
उत्तर:– त्यां एम ओळखाण करावी छे के ज्यां मुनिदशा थई होय त्यां ए प्रकारनो सदोष आहार
लेवानो भाव होतो ज नथी; ते भूमिकानो क्रम ज एवो छे के त्यां सदोष आहार लेवानी वृत्ति ज न थाय.
आवो आहार लेवो ने आवो आहार छोडवो–ए तो निमित्तनुं कथन छे. पण कोई एम कहे के “भले सदोष
आहार आववानो हशे तो सदोष आवशे, पण अमने ते सदोष आहारना ग्रहणनी वृत्ति नथी”–तो ते तो
स्वछंदी छे, तेनी द्रष्टि ज आहार उपर छे, ज्ञायक उपर तेनी द्रष्टि नथी. मुनिओने तो ज्ञानमां एटली बधी
सरळता थई गई छे के ‘आ आहार मारा माटे बनावेलो हशे!’ एटली वृत्ति ऊठे तो पण (–पछी भले ते
आहार तेमना माटे करेलो न