: २६ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
होय ने निर्दोष होय तो पण–) ते आहार लेवानी वृत्ति छोडी दे छे. अने कदाचित उद्देशीक (–मुनिने माटे
बनावेलो) आहार होय पण जो शंकानी वृत्ति पोताने न ऊठे ने ते आहार ल्ये तो पण मुनिने त्यां कांई दोष
लागतो नथी. आ क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करनारनुं जोर पोताना ज्ञायकस्वभाव तरफ जाय छे. पुरुषार्थनुं जोर
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळ्या वगर क्रमबद्धपर्यायनो बधा पडखेथी यथार्थ निर्णय थाय ज नहि.
[९५] क्रमबद्धपर्यायना निर्णयमां जैनशासन.
जुओ, पोताना ज्ञाता–द्रष्टा स्वभावनी प्रतीतपूर्वक आ क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कर्यो त्यां पोतानी
क्रमबद्धपर्यायमां ज्ञातापणानी ज अधिकता थई, ने रागनो पण ज्ञाता ज रह्यो; क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय पण
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि वडे ज थाय छे, तेथी तेमां जैनशासन आवी जाय छे. जे अबद्धस्पृष्ट...आत्माने देखे छे
ते समस्त जिनशासनने देखे छे–एम पंदरमी गाथामां कह्युं, अने अहीं–‘जे ज्ञायकद्रष्टिथी क्रमबद्धपर्यायनो
निर्णय करे छे ते समस्त जिनशासनने देखे छे’ –एम कहेवाय छे,–ते बंनेनुं तात्पर्य एक ज छे. द्रष्टिने अंतरमां
वाळीने ज्यां ज्ञा... य... क उपर मीट मांडी त्यां सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान साथे चारित्र, आनंद, वीर्य वगेरेनुं पण
शुद्धपरिणमन थवा मांड्युं, ए ज जैनशासन छे; पछी त्यां साधकदशामां अस्थिरतानो राग अने कर्मनुं निमित्त
वगेरे केवां होय ते पण स्व–पर प्रकाशक ज्ञानमां ज्ञेयपणे जणाई जाय छे.
जे जीवमां के अजीवमां, जे समये जे पर्यायनी योग्यतानो काळ छे ते समये ते पर्यायरूपे ते स्वयं
परिणमे छे, कोई बीजा निमित्तने लीधे ते पर्याय थती नथी. आवा वस्तुस्वभावनो निर्णय करनार जीव
पोताना ज्ञायकभावनो आश्रय करीने ज्ञाताद्रष्टाभावपणे ज ऊपजे छे, पण अजीवना आश्रये ऊपजतो नथी.
साधक होवाथी भले अधूरी दशा छे, तो पण ज्ञायकस्वभावना आश्रयनी मुख्यताथी ज्ञायकपणे ज ऊपजे छे,
रागादिनी मुख्यतापणे ऊपजतो नथी. जेणे ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कर्यो ते ज खरेखर
सर्वज्ञने जाणे छे, ते ज जैनशासनने जाणे छे, ते ज उपादान–निमित्तने अने निश्चयव्यवहारने यथार्थपणे
ओळखे छे. जेने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी तेने ते कांईपण यथार्थ–साचुं होतुं नथी.
[९६] आचार्यदेवना अलौकिक मंत्रो.
अहो! आ तो कुंदकुंदाचार्यदेवना ने अमृतचंद्राचार्यदेवना अलौकिक मंत्रो छे. जेने आत्मानी परिपूर्ण
ज्ञानशक्तिनो विश्वास आवे तेने ज आ क्रमबद्धपर्याय समजाय तेम छे. समयसारमां आचार्यदेवे ठेकठेकाणे आ
वात मूकी छे–
मंगलाचरणमां ज सौथी पहेला कळशमां शुद्धात्माने नमस्कार करतां कह्युं हतुं के ‘सर्वभावांतरच्छिदे’
एटले के शुद्धात्मा पोताथी अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोने सर्व क्षेत्रकाळ संबंधी, सर्व विशेषणो सहित,
एक ज समये जाणनारो छे. अहीं सर्व क्षेत्रकाळ संबंधी जाणवानुं कह्युं तेमां क्रमबद्धपर्याय होवानुं आवी ज गयुं.
(‘स्वानुभूत्या चकासते’ एटले के पोतानी अनुभवनरूप क्रियाथी प्रकाशे छे–एम कहीने तेमां स्व–प्रकाशकपणुं
पण बताव्युं छे.)
पछी बीजी गाथामां जीवनुं स्वरूप वर्णवतां कह्युं के– ‘क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनेक भावो जेनो
स्वभाव होवाथी जेणे गुण–पर्यायो अंगीकार कर्या छे.’–तेमां पण क्रमबद्धपर्यायनी वात आवी गई.
त्यार पछी ‘अनुक्रमे आविर्भाव अने तिरोभाव पामती एवी ते ते व्यक्तिओ...’ एम ६२मी गाथामां
कह्युं तेमां पण क्रमबद्धपर्यायनी वात समाई गई.
त्यार पछी कर्ता कर्म अधिकारनी गा. ७६–७७–७८मां ‘प्राप्य, विकार्य ने निर्वर्त्य’ एवा कर्मनी वात करी;
त्यां कर्ता, जे नवुं उत्पन्न करतो नथी तेमज विकार करीने एटले के फेरफार करीने पण करतो नथी, मात्र जेने
प्राप्त करे छे ते कर्तानुं प्राप्य कर्म छे,–एम कह्युं तेमां पण पर्यायनुं क्रमबद्धपणुं आवी गयुं. द्रव्य पोतानी
क्रमबद्धपर्यायने समये समये प्राप्त करे छे–पहोंची वळे छे.
त्यार बाद पुण्य–पाप अधिकारनी गा. १६० ‘सो सव्वणाणदरिसी...’ मां कह्युं के आत्मद्रव्य पोते ज
‘ज्ञान’ होवाने लीधे विश्वने (सर्व पदार्थोने) सामान्य–विशेषपणे जाणवाना स्वभाववाळुं छे... पण पोताना
पुरुषार्थना अपराधथी सर्व प्रकारे संपूर्ण एवा पोताने (अर्थात् सर्व प्रकारे सर्व ज्ञेयोने जाणनारा एवा
पोताने) जाणतुं नथी तेथी अज्ञानभावे वर्ते छे. अहीं “विश्वने सामान्य–विशेषपणे जाणवानो स्वभाव” कहेतां
तेमां क्रमबद्धपर्यायनी वात पण