: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : २७ :
समाई गई. जीव पोताना सर्वज्ञस्वभावने जाणतो नथी तेथी ज अज्ञानी छे. जो पोताना सर्वज्ञस्वभावने जाणे
तो तेमां क्रमबद्धपर्यायनो पण निर्णय थई जाय ने अज्ञान रहे नहि.
आस्रवअधिकारमां गा. १६६ मां “पोते ज्ञानस्वभाववाळो होईने, केवळ जाणे ज छे”–एम कह्युं त्यां
ज्ञेयोनुं क्रमबद्धपणुं आवी गयुं.
त्यार पछी संवरअधिकारमां “उपयोग उपयोगमां ज छे, क्रोधमां के कर्म–नोकर्ममां उपयोग नथी” एम
कह्युं, त्यां उपयोगना स्वपरप्रकाशक स्वभावमां क्रमबद्धपर्यायनी वात पण सिद्ध थई जाय छे.
पछी निर्जरा–अधिकार गा. २१६ मां वेद्य अने वेदक बंने भावोनुं क्षणिकपणुं बताव्युं, ते बंने भावो कदी
भेगा थता नथी–एम कहीने तेनुं क्रमबद्धपणुं बताव्युं. समय–समयनी उत्पन्न–ध्वंशी पर्याय उपर ज्ञानीनी द्रष्टि
नथी पण धु्रव ज्ञायकस्वभाव उपर तेनी द्रष्टि छे, धु्रव–ज्ञायक उपर द्रष्टि राखीने ते क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता छे.
त्यार पछी बंध–अधिकारमां १६८ मा कळश (सर्वं सदैवनियतं....) मां कह्युं के आ जगतमां जीवोने
मरण, जीवित, दुःख, सुख–बधुंय सदैव नियमथी पोताना कर्मना उदयथी थाय छे; ‘बीजो पुरुष बीजानां मरण,
जीवन, दुःख, सुख करे छे, आम जे मानवुं ते तो अज्ञान छे.’ एटले आत्मा ते क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता छे, पण
तेनो फेरवनार नथी–ए वात तेमां आवी गई.
मोक्ष–अधिकारमां पण गा. २९७–८–९मां छ कारकोनुं वर्णन करीने, आत्माने ‘सर्वविशुद्धचिन्मात्रभाव’
कह्यो ‘सर्वविशुद्धचिन्मात्र’ कहेतां सामा ज्ञेयपदार्थोनां परिणामो पण क्रमबद्ध छे–एम तेमां आवी गयुं.
आ सर्वविशुद्ध–अधिकारनी चालती गाथाओ (३०८ थी ३११) मां पण क्रमबद्धपर्यायनी स्पष्ट वात
करी छे.
बीजा शास्त्रोमां पण अनेक ठेकाणे आ वात करी छे. पं. बनारसीदासजीए श्री जिनेन्द्रभगवाननां
१००८ नामोमां ‘क्रमवर्ती’ एवुं पण एक नाम आप्युं छे.
[९७] स्पष्ट अने मूळभूत वात ‘–ज्ञानशक्तिनो विश्वास.’
आ तो सीधी ने स्पष्ट वात छे के आत्मा ज्ञान छे, सर्वज्ञतानुं तेनामां सामर्थ्य छे; सर्वज्ञतामां शुं
जाणवानुं बाकी रही गयुं? सर्वज्ञताना सामर्थ्य उपर जोर न आवे तो क्रमबद्धपर्याय समजाय नहि. आ तरफ
सर्वज्ञताना सामर्थ्यने प्रतीतमां लीधुं त्यां ज्ञेयोमां क्रमबद्धपर्यायो छे तेनो निर्णय पण थई गयो. आ रीते
आत्माना मूळभूत ज्ञायकस्वभावनी आ वात छे. आनो निर्णय न करे तो सर्वज्ञनी पण साची श्रद्धा थती नथी.
आत्मानी ज्ञान–शक्तिनो ज विश्वास न आवे तेने जैनशासननी एककेय वात समजाय तेवी नथी.
समकीति पोताना ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करीने ज्ञातापणाना क्रमबद्ध परिणामे ऊपजतो थको जीव ज
छे, पण कर्मनो आश्रय करीने ऊपजतो नथी तेथी अजीव नथी.
त्यार पछी स्वरूपमां विशेष एकाग्रता वडे छट्ठा–सातमा गुणस्थानरूप मुनिदशा प्रगटी, ते मुनिदशारूपे
पण जीव पोते ज पोताना क्रमबद्धपरिणामथी ऊपजतो थको जीव ज छे, पण निर्दोष आहार वगेरेना आश्रये ते
पर्यायपणे ऊपजतो नथी माटे अजीव नथी.
त्यार पछी केवळज्ञान दशा थई, तेमां पण जीव पोते ज क्रमबद्ध परिणमीने ते अवस्थापणे ऊपज्यो छे,
तेथी ते जीव ज छे, पण चोथो आरो के शरीरनुं संहनन वगेरे अजीवना कारणे ते अवस्था ऊपजी नथी, तेमज
जीवे ते अजीवनी अवस्था करी नथी, तेथी ते अजीव नथी.
[९८] अहो! ज्ञातानी क्रमबद्ध धारा!
जुओ, आ ज्ञातानी क्रमबद्धपर्याय!–आमां तो केवळज्ञान समाय छे, मोक्षमार्ग आवी जाय छे,
सम्यग्दर्शन आवी जाय छे. अने आनाथी विरुद्ध माननार अज्ञानी केवो होय तेनुं ज्ञान पण आवी जाय छे.
जीव अन अजीव बधा तत्त्वोनो निर्णय आमां आवी जाय छे.
जुओ, आ सत्यनी धारा!–ज्ञायकभावनो क्रमबद्ध प्रवाह!! ज्ञानीने पोताना ज्ञायकस्वभावमां एकता
वडे सम्यग्दर्शनथी शरू करीने ठेठ केवळज्ञान सुधी एकला ज्ञायकभावनी क्रमबद्ध धारा चाली जाय छे.
शास्त्रमां उपदेश कथन अनेक प्रकारनां आवे, ते ते काळे संतोने तेवो विकल्प ऊठतां ते प्रकारनी
उपदेशवाणी नीकळी; त्यां ज्ञाता तो पोताना ज्ञायकभावनी धारापणे ऊपजतो थको ते वाणी अने विकल्पनो
ज्ञाता ज छे, पण तेमां तन्मय थईने ते–रूपे ऊपजतो नथी.