Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
जगतनो कोई पदार्थ वच्चे आवीने जीवनी क्रमबद्धपर्यायने फेरवी नांखे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी;
जीव पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजतो थको जीव ज छे; ए ज प्रमाणे अजीव पण तेनी क्रमबद्धपर्यायपणे
ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे. जे जीव आवो निर्णय अने भेदज्ञान नथी करतो ते जीव अज्ञानपणे भ्रांतिमां भ्रमण
करी रह्यो छे.
[९९] ज्ञानना निर्णयमां क्रमबद्धनो निर्णय.
प्रश्न:– त्रणकाळनी पर्याय क्रमबद्ध छे, छतां कालनी वात पण केम जणाती नथी?
उत्तर:– एनो जाणनार–ज्ञायक कोण छे तेनो तो पहेला निर्णय करो. जाणनारनो निर्णय करतां
त्रणकाळनी क्रमबद्धपर्यायनो पण निर्णय थई जशे. वळी जुओ, गई काले शनिवार हतो ने आवती काले
सोमवार ज आवशे, त्यार पछी मंगळवार ज आवशे,–ए प्रमाणे साते वारनुं क्रमबद्धपणुं जाणी शकाय छे के
नहीं? ‘घणा काळ पछी क्यारेक सोमवार पछी शनिवार आवी जशे तो? अथवा रविवार पछी बुधवार आवी
जशे तो?–एम कदी शंका नथी पडती, केम के ते प्रकारनो क्रमबद्धपणानो निर्णय थयो छे; तेम आत्माना
केवळज्ञानस्वभावनी प्रतीत करतां बधा द्रव्योनी क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय थई जाय छे. अहीं तो ‘क्रमबद्धपर्याय’
कहेतां ज्ञायकनो निर्णय करवानुं प्रयोजन छे. ज्ञाता पोताना स्वभावसन्मुख थईने परिणम्यो त्यां पोते स्वकाळे
क्रमबद्ध परिणमे छे, ने तेनुं स्व–परप्रकाशक ज्ञान खील्युं ते परने पण क्रमबद्ध परिणमता जाणे छे, एटले तेनो
ते कर्ता थतो नथी.
[१००] ‘निमित्त न आवे तो?’–एम कहेनार निमित्तने जाणतो नथी.
प्रश्न:– जो वस्तुनी क्रमबद्धपर्याय एनी मेळे निमित्त विना थई जती होय तो, आ पींछी अहीं पडी छे
तेने हाथना निमित्त विना ऊंची करी द्यो!
उत्तर:– अरे भाई! पींछीनी अवस्था पींछीमां, ने हाथनी अवस्था हाथमां,–तेमां तुं शुं कर? पींछी तेना
क्षेत्रांतरनी क्रमबद्धपर्यायथी ज ऊंची थाय छे, अने ते वखते हाथ वगेरे निमित्त पण तेनी क्रमबद्धपर्यायपणे
होय ज छे, न होय एम बनतुं नथी. आ रीते निमित्तनुं अस्तित्व होवा छतां तेने जे नथी मानतो, अने
‘निमित्त न आवे तो...’ एम तर्क करे छे ते क्रमबद्धपर्यायने के उपादाननिमित्तने समज्यो ज नथी. ‘छे’ पछी
‘न होय तो...’ ए प्रश्न ज क्यांथी आव्यो?
[१०१] ‘निमित्त विना न थाय’–एनो आशय शुं?
उपादान–निमित्तनी स्पष्टता बहार आवतां हवे केटलाक लोको एवी भाषा वापरे छे के– ‘निमित्त भले
कांई करतुं नथी, पण निमित्त विना तो थतुं नथी ने!’ पण ऊंडाणमां तो तेमनेय निमित्ताधीन द्रष्टि ज पडी छे.
निमित्त होय छे तेने प्रसिद्धि करवा माटे ‘निमित्त विना न थाय’–एम पण शास्त्रमां कहेवामां आवे छे; परंतु–
‘कार्य थवानुं होय, ने निमित्त न आवे तो न थाय’ एवो तेनो अर्थ नथी. देवसेनाचार्य नयचक्र पृ. ५२–५३मां
कहे छे के “जो के मोक्षरूपी कार्यमां भूतार्थथी जाणेलो आत्मा वगेरे उपादान कारण छे, तो पण ते सहकारी
कारणना विना सिद्ध नथी थतुं; तेथी सहकारी कारणनी प्रसिद्धि अर्थे निश्चय अने व्यवहारनो अविनाभाव
संबंध बतावे छे.” आमां तो, क्रमबद्धपर्यायमां उपादाननी योग्यता वखते ते ते प्रकारनुं निमित्त होय ज छे–
एम ज्ञान कराव्युं छे; कोई अज्ञानी, निमित्तने सर्वथा मानतो न होय तो, ‘निमित्त विना न थाय’ एम कहीने
निमित्तनी प्रसिद्धि करावी छे एटले के तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. परंतु तेथी निमित्त आव्युं माटे कार्य थयुं ने निमित्त
न होत तो ते पर्याय न थात’–एवो तेनो सिद्धांत नथी. ‘निमित्त विना न थाय’ तेनो आशय एटलो ज छे के
ज्यां ज्यां कार्य थाय त्यां ते होय छे, न होय एम बनतुं नथी. शास्त्रोमां तो निमित्तना ने व्यवहारना अनेक
लखाणो भर्या छे, पण स्व–परप्रकाशक ज्ञाता जाग्या विना तेना आशय उकेलशे कोण?
[१०२] शास्त्रोना उपदेश साथे क्रमबद्धपर्यायनी संधि.
कुंदकुंदाचार्यदेवनी आज्ञाथी जयसेनाचार्यदेवे बे दिवसमां ज एक प्रतिष्ठापाठनी रचना करी छे, तेमां
प्रतिष्ठा संबंधी क्रियाओनुं शरूआतथी मांडीने ठेठ सुधीनुं वर्णन कर्युं छे. प्रतिमाजी माटे आवो पाषाण लाववो,
आवी विधिथी लाववो, आवा कारीगरो पासे प्रतिमा घडाववी; तेमज अमुक विधि माटे माटी लेवा जाय त्यां