Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : २९ :
जमीन खोदीने माटी लई ल्ये अने पछी वधेली माटीथी ते खाडो पूरतां जो माटी वधे तो ते शुभ शुकन
समजवा.–ईत्यादि अनेक विधिनुं वर्णन आवे छे, पण आत्मानुं ज्ञायकपणुं राखीने ते बधी वात छे. ज्ञायकपणुं
चूकीने के क्रमबद्धपणुं तोडीने ते वात नथी. प्रतिष्ठा करावनारने ते प्रकारनो विकल्प होय छे अने माटी वगेरेनी
तेवी क्रमबद्धपर्याय थाय छे–तेनी त्यां ओळखाण करावी छे, पण अजीवनी पर्यायने जीव करी द्ये छे एम त्यां
नथी बताववुं. प्रतिष्ठामां ‘सिद्धचक्रमंडलविधान’ ने ‘यागमंडलविधान’ वगेरेना मोटो मोटा रंगबेरंगी मंडल
रचाय, ने शास्त्रमां पण तेनो उपदेश आवे, छतां पण ते बधुं क्रमबद्ध ज छे; शास्त्रमां तेनो उपदेश आप्यो तेथी
कांई तेनुं क्रमबद्धपणुं फरी गयुं के जीव तेनो कर्ता थई गयो – एम नथी. ज्ञाता तो पोताने जाणतो थको तेने
पण जाणे छे. ने पोते पोताना ज्ञायकभावरूप क्रमबद्धपर्याये ऊपजे छे.
ए ज रीते समितिना उपदेशमां पण ‘जोईने चालवुं विचारीने बोलवुं, जतनानी वस्तु लेवी–मूकवी’
ईत्यादि कथन आवे, पण तेनो आशय शरीरनी क्रियाने जीव करी शके छे–एम बताववानो नथी. मुनिदशामां ते ते
प्रकारनो प्रमादभाव थतो ज नथी, हिंसादिनो अशुभभाव थतो ज नथी–एवुं ज मुनिदशानी क्रमबद्धपर्यायनुं
स्वरूप छे–ते ओळखाव्युं छे. निमित्तथी कथन करीने समजावे, तेथी कांई क्रमबद्धपर्यायनो सिद्धांत तूटी जतो नथी.
[१०३] स्वयं प्रकाशी ज्ञायक.
शरीर वगेरेनो एकेक परमाणु स्वतंत्रपणे तेनी क्रमबद्धपर्यायरूपे परिणमी रह्यो छे, तेने बीजो कोई
अन्यथा फेरवी शके एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. अहो! भगवान आत्मा तो स्वयं प्रकाशी छे, पोताना
ज्ञायकभाव वडे ते स्व–परनो प्रकाशक ज छे. पण अज्ञानीने ए ज्ञायकसवभावनी वात बेसती नथी. हुं ज्ञायक,
क्रमबद्धपर्यायो जेम छे तेम तेनो हुं जाणनार छुं,–जाणनार ज छुं पण कोईनो फेरवनार नथी–आवी स्वसन्मुख
प्रतीत न करतां, अज्ञानी जीव कर्ता थईने परने फेरववानुं माने छे, ते मिथ्यामान्यता ज संसारभ्रमणनुं मूळ छे.
बधा जीवो स्वयंप्रकाशी ज्ञायक छे; तेमां–
(१) केवळीभगवान ‘पूरा ज्ञायक’ छे; (तेमने ज्ञायकपणुं पूरुं व्यक्त थई गयुं छे.)
(२) समकीति–साधक ‘अधूरा ज्ञायक’ छे; (तेमने पूर्ण ज्ञायकपणुं प्रतीतमां आवी गयुं छे, पण हजी
पूरुं व्यक्त थयुं नथी.)
(३) अज्ञानी ‘विपरीत–ज्ञायक’ छे; (तेने पोताना ज्ञायकपणानी खबर नथी.)
ज्ञायकस्वभावनी अप्रतीत ते संसार,
ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत वडे साधकदशा ते मोक्षमार्ग, अने ज्ञायकस्वभाव पूरो खीली जाय ते
केवळज्ञान ने मोक्ष.
[१०४] दरेक द्रव्य ‘निज–भवन’मां ज बिराजे छे.
जगतमां दरेक द्रव्य पोतानी क्रमबद्धपर्याय साथे तद्रूप छे, पण पर साथे तद्रूप नथी. पोतपोताना भावनुं
जे ‘भवन’ छे तेमां ज दरेक द्रव्य बिराजे छे. जीवना गुण–पर्यायो ते जीवनो भाव छे ने जीव भाववान छे,
अजीवना गुण–पर्यायो ते तेनो भाव छे ने अजीव भाववान छे. पोतपोताना भावनुं जे भवन–एटले के
परिणमन–तेमां ज सौ द्रव्य बिराजे छे. जीवना भवनमां अजीव गरतो नथी–प्रवेशतो नथी, ने अजीवना
भवनमां जीव गरतो नथी. ए ज प्रमाणे एक जीवना भवनमां बीजो जीव गरतो नथी तेमज एक अजीवना
भवनमां बीजो अजीव गरतो नथी. जीव के अजीव दरेक द्रव्य पोतपोताना निज–भवनमां (निज परिणमनमां)
बिराजे छे, पोताना निज–भवनमांथी बहार नीकळीने बीजाना भवनमां कोई द्रव्य जतुं नथी.
सुद्रष्टि–तरंगिणीमां छ मुनिओनो दाखलो आपीने कह्युं छे के: जेम एक गुफामां घणा काळथी छ मुनिराज
रहे छे, परंतु कोई कोईथी मोहित नथी, उदासीनता सहित एक गुफामां रहे छे, छए मुनिवरो पोतपोताना
स्वरूपसाधनमां एवा लीन छे के बीजा मुनिओ शुं करे छे तेना उपर लक्ष जतुं नथी, एक बीजाथी निरपेक्षपणे सौ
पोतपोतामां एकाग्रपणे बिराजे छे. तेम आ चौद बह्मांडरूपी गुफामां जीवादि छए द्रव्यो एक बीजाथी निरपेक्षपणे
पोतपोताना स्वरूपमां बिराजी रह्या छे, कोई द्रव्य अन्य द्रव्यनी अपेक्षा राखतुं नथी, बधा द्रव्यो पोतपोताना
गुण–पर्यायोमां ज रहेला छे; जगतनी गुफामां छए द्रव्यो स्वतंत्रपणे पोतपोताना स्वरूपमां परिणमी रह्या छे.
तेमां भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभाववाळो छे, आत्मा सिवायना पांचे द्रव्योमां ज्ञायकपणुं नथी.